Monday, May 6, 2024
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जाति जनगणना पर बिहार की सियासत में सबके अपने अपने दांव

0-ओबीसी में खोया आधार हासिल करना चाहता है राजद
0-सामाजिक न्याय के मोर्चे पर राजद को बढ़त नहीं लेने देना चाहता जदयू
0-अगड़ों के इतर बने आधार को गंवाना नहीं चाहती भाजपा
नई दिल्ली, । जातिगत जनगणना के सवाल पर बिहार में एक दूसरे की धुर विरोधी पार्टियां एक मंच पर हैं। नीतीश की अगुवाई में दस दलों के प्रतिनिधिमंडल की पीएम से मुलाकात के पूर्व राज्य के पूर्व डिप्टी सीएम सुशील मोदी ने भी इस मांग के प्रति पार्टी की प्रतिबद्घता जता दी। दरअसल सामाजिक न्याय की राजनीति के मामले में सबसे संवेदनशील इस राज्य में जाति जनगणना के बहाने सभी दल अलग-अलग सियासी दांव आजमा रहे हैं।
दरअसल बीते डेढ़ दशकोंं में राजद का आधार यादव और मुसलमानों तक सीमित रह गया है। राजद अब इसी बहाने ओबीसी में शामिल अन्य जातियों में अपना खोया आधार फिर से पाना चाहता है। यही कारण है कि राजद इस मुद्दे पर लगातार मुखर है। राजद इस मामले में कोई मौका नहीं गंवाना चाहता। उसे लगता है कि सामाजिक न्याय से जुड़े इस अहम मुद्दे पर मुखरता के जरिए ओबीसी में यादव के इतर जातियों में उसका पुराना प्रभाव कायम हो सकता है।
दूसरी ओर नीतीश राजद के इस सियासी दांव को समझ  रहे हैं। वह नहीं चाहते कि सामाजिक न्याय के मोर्चे पर राजद को जदयू पर बढ़त मिले। यही कारण है कि जाति जनगणना के मुद्दे ने जब भी तूल पकड़ा, नीतीश ने उसे अपने हक में करने की कोशिश की। दो बार बिहार विधानसभा से इसके पक्ष में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कराया। सिर्फ इसलिए कि इस मामले में राजद को बढ़त न मिल जाए।

क्यों समर्थन में आई भाजपा
पीएम से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल में भाजपा नेता जनक राम भी शामिल थे। इस मुलाकात के पहले सुशील मोदी ने जाति जनगणना का समर्थन किया। दरअसल भाजपा लंबे संघर्ष के बाद दलितों और अति पिछड़ी जातियों में पैठ बना पाई है। उसे पता है कि इस मुद्दे पर ढुलमुल रवैया अपनाने से उस पर फिर से अगड़ी जाति की पार्टी का ठप्पा लग जाएगा। यही कारण है कि भाजपा ने विधानसभा में इससे संबंधित प्रस्ताव का दोनों बार समर्थन किया।

बिहार में सामाजिक न्याय अब भी अहम
सभी दलों को पता है कि बिहार की सियासी जमीन सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए अभी भी बेहद उपजाऊ है। राज्य ने दो अहम अवसरों पर इस आशय का संदेश दिया है। नब्बे के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जहां दूसरे राज्यों में हिंदुत्व की राजनीति को मजबूती मिली, वहीं बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति का डंका बजा। इसके बाद साल 2017 के विधानसभा चुनाव में संघ प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण की समीक्षा संबंधी बयान ने जहां लालू-नीतीश की जोड़ी को प्रचंड जीत दिलाई, वहीं भाजपा को बुरी हाल झेलनी पड़ी।

राज्य में अगड़े महज प्रतीकात्मक
संख्याबल की दृष्टिï से देखें तो राज्य में अगड़े वर्ग की उपस्थिति महज प्रतीकात्मक है। राज्य में जहां ओबीसी की आबादी पचास फीसदी से ज्यादा है, वहीं अगड़ों की आबादी 12 फीसदी से भी कम है। यही कारण है कि जाति जनगणना के सवाल पर जहां उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए ऊहापोह का कारण बनता है वहीं बिहार भाजपा के लिए मजबूरी बन जाती है।

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