देहरादून, 21 फरवरी रविवार को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है। इस बार मातृभाषा दिवस से ठीक पहले साहित्यकार ललित मोहन रयाल की पुस्तक ‘कारी तू कबि ना हारी’ और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। हिंदी के साथ गढ़वाली भाषा का समावेश पुस्तक को अनूठा स्वरूप प्रदान करता है।
संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को ने इस बार अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का विषय समावेशी शिक्षा और समाज के लिए बहुभाषिता को प्रोत्साहन रखा है। मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषाओं को जानने से बच्चों में सांस्कृतिक सामंजस्य की क्षमता विकसित होती है और उनके लिए अनुभव का नया संसार खुलता है। हर भाषा स्थानीय ज्ञान परंपरा की वाहक होती है। लोकभाषा गांव, देहात के लोकजीवन, सम्रद्ध साहित्यिक और बौद्धिक विरासत, लोक संस्कृति और मुहावरों से संपन्न होती है।
साहित्यकार ललित मोहन रयाल की यह पुस्तक पाठकों को लोक भाषा को जानने समझने और उसे अपने जीवन का हिस्सा बनाने के लिए भी प्रोत्साहित करेगी।
भाषाई जनगणना के अनुसार भारत में 19500 भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं। जिनमें से 121 ऐसी भाषा है जिन्हें देश में 10000 या उससे अधिक लोग बोलते हैं, जबकि 196 भारतीय भाषाएं लुप्त हो चुकी हैं।
यह अच्छी बात है कि गढ़वाली भाषा में पिछले कई वर्षों से साहित्य लिखा जा रहा है। लेकिन, वर्तमान में इसमें थोड़ा कमी आई है। हमें गढ़वाली भाषा में लिखने वाले लेखकों को प्रोत्साहित करना होगा। हिंदी के बेहतरीन लेखकों में शुमार ललित मोहन रयाल जी का हिंदी के साथ गढ़वाली भाषा का समावेश का यह प्रयास निश्चित तौर पर सराहनीय है। पुस्तक खरीद कर उसे पढ़कर आप गढ़वाली भाषा की समृद्धि में योगदान दे सकते हैं। यह अमेजॉन सहित अन्य ऑनलाइन साइट व पुस्तक की दुकानों में भी उपलब्ध है।(साभार सतेन्द्र डंडरियाल की फेसबुक से)
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