Tuesday, December 24, 2024
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श्रावण मास की पूर्णिमा पर मनाया जाता है रक्षा बंधन, बहनें भाइयों की सुख-समृद्धि के लिए बांधती कलाई पर ‘राखी’

हिन्दुओं का पवित्र पर्व रक्षाबंधन श्रावन मास की पूर्णिमा को देशभर में मनाया जाता है। यह पर्व स्लोनो के नाम से भी जाना जाता है, फारसी में जिसका अर्थ है-नववर्ष का दिन।
इस दिन बहनें अपने भाइयों की सुख-समृद्धि के लिए उनकी कलाई पर राखी बांधती है और कामना करती है कि हर खतरे और कठिनाई में यह राखी उनकी रक्षा करेगी। महाराष्ट्र में इस पर्व पर समुद्र को नारियल अप्रित किए जाते हैं इसलिए इस दिन को नारियली पूर्णिमा भी कहा जाता है। इस दिन नारियल फोड़कर किसी नये कार्य को आरम्भ करना शुभ माना जाता है। पारसी लोग इस दिन समुद्र को नारियल भेंट करके जल देवता की अर्चना करते हैं।

यह बात अत्यन्त रोचक है कि हमारे प्रत्येक सामाजिक एवं धार्मिक संस्कार – जन्म-मृत्यु, पूजा-पाठ, विवाह, व्रत और त्यौहार – के साथ नारियल जुड़ा है। क्या कभी हमने सोचा है कि उसके पीछे क्या कारण है? यदि हम नारियल को ध्यान से देखें तो हमें इसके ऊपर तीन आँखें बनी हुई दिखती हैं जिसमें तीसरी आँख, शिवनेत्र का द्योतक है जो कि दोनों आँखों के मध्य स्थित दिव्य-चक्षु का स्मरण कराता है। नारियल के मीठे पानी का स्वाद पाने के लिए हमें उसमें छेद करना होगा। इसी तरह अपने भीतर स्थित प्रभु को पाने के लिए हमारी तीसरी आँख का खुलना जरूरी है।

गुरू से ग्रहण किए गए मंत्र में निहित संदेश की याद दिलाता है और वो है आत्म-ज्ञान की प्राप्ति एवं प्रभु का साक्षात्कार। एक पूर्ण सत्गुरु प्रभु-प्राप्ति के लक्ष्य को पाने में मददगार होता है और हर प्रकार से शिष्य की रक्षा और संभाल करता है।
एक बहन जब अपने भाई को राखी बाँधती है तो वह उसकी रक्षा करने का वचन देता है। लेकिन भाई की रक्षा कौन करेगा? कौन है जो इस जीवन में और इसके बाद हमारी रक्षा करने में समर्थ है? केवल एक सच्चा गुरु, जीवन के उतार-चढ़ाव और संकट में हमारी सहायता करता है।

वह हमें दीक्षा देकर एक अदृश्य रक्षाबंधन से बाँध देता है जो पल-पल हमारी रक्षा करता है। पूर्ण सत्गुरु से दीक्षा पाना, यह सुनिश्चित करना है कि हम जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटकर, जीते-जी मोक्ष प्राप्त करें। हमारे सत्गुरु, दया और करुणा से भरकर हमें दीक्षा का वरदान देते हैं। वह अपनी तेजोमयी शक्ति से हमें उभारते है ताकि हमारा ध्यान सिमटकर शिवनेत्र पर एकाग्र हो सके। बाइबिल में आता है, ‘यदि तुम्हारी दो आँखों की एक आँख बन जाए तो तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व ज्योतिर्मय हो उठेगा।’ समर्थ सत्गुरु हमें सिद्ध मंत्र देकर, हमारे मन को शांत करता है और हमें इस योग्य बनाता है कि हम आत्मा के केन्द्र दिव्य चक्षु पर ध्यान केन्द्रित कर सकें।

इस बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित होने के बाद हम अपने अन्तर में दिव्य मण्डलों की ज्योति और अनहद संगीत का अनुभव करते है। अंतरीय ज्योति एवं शब्द पर निरंतर ध्यान एकाग्र करने से हमारी आत्मा देहाभास से ऊपर उठकर दिव्य मण्डलों में प्रवेश करती है। वहाँ सत्गुरु के ज्योतिर्मय स्वरूप से उसका मिलाप होता है। जो आत्मा को उच्च आध्यात्मिक मंडलों में ले जाते हैं अर्थात स्थूल, सूक्ष्म, और कारण मण्डलों के परे आत्मा के स्रोत, परमात्मा तक। ये दिव्य मण्डल, शांति एवं आनन्द से पूर्ण हैं। देहरूपी पिंजरे से बाहर आकर हमारी खुशी का पारावार नहीं रहता और हम एक पक्षी की भाँति उच्च से उच्चतर रूहानी मण्डलों में पर्वाज़ करने लगते हैं।

दिव्य चेतनता से भरपूर इन मण्डलों में पहुँचकर जो नशा और मदहोशी हमें मिलती है, शब्दों में उसका वर्णन सम्भव नहीं है। अपने स्रोत, परमात्मा से मिलकर जो परम आनन्द आत्मा को मिलता है वह अतुलनीय और वर्णनातीत है। तब दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। यह दिव्य आनन्द और खुशी की अवस्था है। यही हमारे जीवन का परम लक्ष्य है। इस प्रकार का आत्मिक अनुभव और रक्षाबंधन हमें किसी सगे-संबंधी से नहीं मिल सकता। एक संत-सत्गुरु हमें आवागमन के चक्र से छुड़ाकर हमारे जीवन को सार्थक बनाता है। इस तरह वह हमारा सच्चा रक्षाबंधन करता है तथा इस जीवन में और इस जीवन के बाद भी हमारी रक्षा करता है।H.H. Sant Rajinder Singh Ji Maharaj in Chandigarh | NewZNew

(संत राजिन्दर सिंह जी महाराज)

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