(पूरन चन्द्र काण्डपाल)
वर्षों पहले मेरे दिवंगत बौज्यू (पिता जी) से आंगन के आगे खुबानियों से लदे हुए पेड़ का ठेका स्थानीय गाँव के नौसिखिये ठेकेदार ने ले लिया | बैशाख के महीने की गर्मी से खुबानी पेड़ पर ही पकने लगे | ठेकेदार ने बौज्यू से कहा, “दाज्यू खुमानि टोड़ि बेर टोपरियों में धरि दियो, भोव रत्ते उठै ल्ही जूल |” ( भाई साहब खुबानी तोड़ कर टोकरियों में रख देना, कल सुबह उठा ले जाऊँगा |”) ठेकेदार पांच टोकरियाँ भी छोड़ गया | बौज्यू ने उसके कहे मुताबिक खुबानी तोड़कर टोकरियाँ भर दी | दूसरे दिन ठेकेदार नहीं आया |
कई जबाब भिजवाने के बाद ठेकेदार पांचवे दिन आया | तब तक खुबानी पूरी तरह पक चुकी थीं | इस बीच ठेकेदार को पता चला कि भाव गिर गया है और उसे नफ़ा नहीं होगा | उसने पाँचों खुबानी भरी टोकरियों को घर के पास ही खेतों में उड़ेल दिया | आसपास से लोग आये और मुफ्त में खुबानी उठा कर ले गए | बौज्यू के कई चक्कर लगाने के बाद उसने बड़ी मुश्किल से कुछ महीने पश्चात छिरका- छिरका कर (किस्तों में ) भुगतान किया वह भी रुष्ठ होकर | बौज्यू ने तो उसका आदेश माना परन्तु मैं आज तक नहीं समझ पाया कि खुबानियों के पकने और भाव गिरने में मेरे बौज्यू का क्या कसूर था ?
ठीक यही दुर्गति इस समय के कई राज्यों में टमाटर, प्याज और आलू सहित कई नकदी फसलों की हो रही है | सुनने और देखने में आया है कि बम्पर फसल के कारण इन नकदी फसलों के दाम किसान को पचास पैसे प्रति किलो से भी कम मिल रहे हैं | मुनाफा छोड़ो खाद, पानी, मजदूर की मजदूरी भी नहीं मिल रही है किसानों को | बहुत परिश्रम के बाद आई इस बम्पर फसल का किसान को यह ऐसा इनाम मिला कि उसे स्वयं अपने खून-पसीने से उगाई फसल बरबाद करनी पड़ी | उत्तराखंड में भी चौमासी सब्जियों ( टमाटर, गोबी, शिमला मिर्च, फ्रेंच बीन्स आदि ) का किसान को कभी भी उचित मूल्य नहीं मिलता | दो या तीन रुपये प्रति किलो के दर से किसान से खरीदी गई यह नकदी फसल 20 से 25 गुना अधिक दाम पर हल्द्वानी या दिल्ली में बेची जाती है | किसान को लागत मूल्य भी नहीं मिलता | इसी कारण वहाँ पर भी लोगों ने सब्जियां उगाना छोड़ दिया है |
यह सब हमारे नीति- नियंताओं की अदूरदर्शिता का परिणाम है | यदि स्थानीय स्तर पर शीत गोदाम (कोल्ड स्टोरेज ) बने होते तो इनकी बम्पर फसल को कम से कम मूल्य पर अवश्य खरीद लिया जाता | कहने को देश में खाद्य-संस्करण तंत्र भी है परन्तु इन किसानों के किस काम का ? अंत में दुखी होकर किसान आत्मघाती कदम उठाने पर मजबूर होता है जो अनुचित एवं दुखित है | फसल पैदा करने के लिए किसान को भाषण दिया जाता है पर फसल तैयार होने पर उसके पास खरीदने कोई नहीं जाता | मिनिमम सपोर्ट प्राइस से कम दाम पर मजबूर होकर किसान अपना उत्पाद बेचता है । फिर फसल बोते- लगाते समय यह अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता कि फसल कैसी होगी ? फसल बम्पर होगी या उस पर पर प्रकृति की मार तो नहीं पड़ेगी ? आखिर इसमें इन मेहनतकस किसानों का क्या दोष है ? धीरे- धीरे लोग किसान- काश्तकारी क्यों छोड़ रहे हैं ? किसान का बेटा किसानी नहीं करना चाहता । इन प्रश्नों का उत्तर इन लाचार अन्नदाता कृषकों को कौन देगा.. ?
(लेखक 45 वर्षो से साहित्य सृजन में लगे हैं, अखिल भारतीय स्वतंत्र लेखक मंच से जुड़े है और समसामयिक विषयों पर वेबाक लेखन के साथ अब तक उनकी 31 पुस्तकें हिन्दी और कुमाऊंनी में प्रकाशित हो चुकी हैं |)
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