(जय प्रकाश पाण्डेय)
असफल आर्थिक-नीतिगत फैसलों , बढ़ते सामाजिक धार्मिक वैमनस्य और भ्रष्टाचार के साथ परिवारवाद ने प्रति व्यक्ति आय के लिए एशिया में चर्चित , चाय और पर्यटन के लिए विश्व में विख्यात, श्रीलंका को एशिया-प्रशांत क्षेत्र के आर्थिक संकट से गुजर रहे ,विदेशी ऋण चुकाने में असमर्थ, दिवालियेपन के करीब पहुंच चुके देश के रूप में स्थापित कर दिया है ।
हालंकि आनन फानन में राष्ट्रपति राजपक्षे ने जनमंशा और विरोध प्रदर्शनों को ध्यान में रखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को नया पदभार दे दिया गया है लेकिन यक्ष प्रश्न उठकर सामने आ रहे हैं वो ये हैं कि आखिर श्रीलंका की इस स्थिति का दोषी कौन है ? क्या भारत भी ऐसे किसी संकट का सामना भविष्य में कर सकता है ?
सामन्यतया श्रीलंका को आयात आधारित अर्थव्यवस्था माना जाता है । अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को आयात करने वाला यह देश अपने देश की ऊर्जा आवश्यकताओं,खाद्य सामग्रियों और यहां तक की देश के अवसंरचनात्मक विकास हेतु भी विदेशी ऋण पर आश्रित है । यूक्रेन रूस विवाद के चलते तेल की उपलब्धता में कमी और कीमतों में आए उछाल ने श्रीलंका की आर्थिक स्थिति को और भी खराब किया है । केवल पर्यटन, चाय और रबड़ के निर्यात के आधार पर आगे बढ़ते श्रीलंका में कृषि एवं उद्योगों को विविधता प्रदान करने की आवश्यकता के विषय में सोचा ही नहीं गया और चीन के साथ यह निर्भरता पिछले एक दशक में बढ़ती गई है ।
वर्ष 2019 में ही पॉपुलर राजनीति के तहत श्रीलंका में करों में भारी कमी की गई । वैट को 15 प्रतिशत से कम कर 8 प्रतिशत किया गया । इसी प्रकार लगभग 7 अन्य करों को खत्म किया गया । इससे सरकार के राजस्व में कमी आई | अप्रैल 2021 में विदेशी रासायनिक उर्वरकों पर प्रतिबंध लगाया गया। जैविक खेती (ऑर्गेनिक) की नीति को ध्यान में रखने के साथ साथ उर्वरकों के कारण आयात में खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा को बहिर्गमन से रोकने का यह प्रयास था। पूरे देश में जैविक (ऑर्गेनिक) खेती की अवसंरचना को विकसित करने का त्वरित फैसला बाहरी रासायनिक उर्वरकों के आयात में सम्पूर्ण प्रतिबंध के साथ सामने आया । उर्वरकों की अनुपलब्धता से परंपरागत खेती कर रहे किसानों को अत्यंत हानि हुई और श्रीलंका के उत्पादन में काफी कमी आई और कम उत्पादन के कारण अनाज का आयात करना श्रीलंका की मजबूरी बन गया । इस आयात का शुल्क चुकाने में पहले से ज्यादा विदेशी मुद्रा का बहिर्गमन हुआ । और इन नीतियों से प्रभावित किसान परिवारों को मुआवजों देने के लिए सरकारी कोष से प्रचुर राशि का व्यय किया गया और इस तरह पहले से खाली खजाने और खाली होते गए ।
वर्ष 2018 में ईस्टर चर्च में हमले, सिंहली बनाम बाहरी विवाद और बौद्ध धर्म अतिवादिता से भी श्रीलंका के पर्यटन में कमी आनी शुरू हुई । कोविड के बाद पर्यटन सबसे ज्यादा प्रभावित रहा जिस कारण एक आर्थिक वैक्यूम पैदा हुआ जिसने श्रीलंका की आर्थिक स्थिति को दबावग्रस्त कर दिया ।
आज सिंहल बौद्धों की बहुसंख्यक आबादी के तथाकथित आदर्श नेता पूर्व राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे अपनी जिंदगी को बचाने हेतु देश छोड़ने पर विवश हुए हैं और आम जनमानस परिवारवाद की इस राजनीति में ईधन,भोजन के साधनों की जुगत में संघर्षरत है |
इतिहास को देखें तो हम पाते हैं वर्ष 1956 में आए सिंहला अधिनियम से सामाजिक विषमताओं का उद्भव श्रीलंका में होना शुरू हुआ था । सिंहली भाषा को राजभाषा बनाए जाने के आलोक में तमिल और सिंहली के बीच के विवाद की स्थिति को इस अधिनियम ने जन्म दिया । यह वह समय था जब भारत में भी भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हो रहा था । इसी समय पाकिस्तान में भी पूर्वी पाकिस्तान के ऊपर भाषाई अतिवादिता को थोपा जा रहा था । वर्ष1950 तक प्राथमिक उत्पादों के प्रचुर उत्पादन और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मांग के चलते श्रीलंका की आर्थिक स्थिति मजबूत थी । सन 1950 के बाद यह आर्थिक स्थिति कमजोर होते गई और श्रीलंका ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ )का दरवाजा खटखटाया । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ )के शर्त आधारित अनुदान को प्राप्त कर श्रीलंका में विरोधस्वरूप व्यापक प्रतिक्रियाएं हुई और इसी क्रम में श्रीलंका में समाजवादी सरकार के रूप में सीरिमावो भंडारनायके की सरकार आई । भारत इस समय गरीबी हटाओ के अभियान को देश में लागू कर रहा था और श्रीलंका भी समाजवाद को केंद्र में रखकर सामाजिक,आर्थिक विकास की नीतियों में चलने लगा । भविष्य में 1970 में आए तेल संकट के दौर में समाजवादी योजनाएं असफल साबित हुई और राजकोषीय घाटे , राजस्व घाटे और बढ़ते आर्थिक संकट ने भंडारनायके के स्थान पर राष्ट्रपति जयवर्धने को श्रीलंका की राजनीति के केंद्र में स्थापित किया और श्रीलंका आर्थिक उदारीकरण,समाजवाद और फिर से आर्थिक उदारीकरण के राह में श्रीलंका आगे बढ़ा।
यही वह समय था जब सिंहल -बौद्ध राष्टवाद का जन्म श्रीलंका में होता है। इन्हीं सब परिस्थितियों के आलोक में गृह युद्ध का आरंभ हुआ जो वर्ष 1976 में लिट्टे के गठन के साथ वर्ष 1983 तक अपने चरम पर पहुंचा और वर्ष 2005 में महिद्रा राजपक्षे का श्रीलंका की राजनीति में प्रदार्पण हुआ ।
वर्ष 2009 तक श्रीलंका लिट्टे के खिलाफ युद्ध, भ्रष्टाचार , सिंहली -तमिल दंगे आदि आंतरिक विवादों से जूझता रहा । लिट्टे की मृत्यु के बाद राजपक्षे ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ केऔर भारत की जगह व्यवसायिक ऋण का सहारा चीन से लेना शुरू किया । वर्ष 2019 में ईस्टर ब्लास्ट के बाद तो राजपक्षे परिवार को सिंहली पहचान के रूप में पेश किया जाने लगा। और चीन के साथ नए संबंधों पर कार्य शुरू हुआ |
बिजली की कमी से जूझते विद्यालय,गिरते स्वास्थ्य स्तर, भोजन,दवाइयों और ईंधन की किल्लत से जूझते श्रीलंका में वर्तमान में 70 प्रतिशत तक महंगाई बढ़ चुकी है । हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए घर पर कब्जा कर लिया है । शिक्षा, स्वास्थ्य और आमदनी के आधार पर देखें तो वर्ष 2020 में श्रीलंका मानव विकास सूचकांक में 72 वें स्थान पर था जबकि भारत का स्थान 131 था । विश्व बैंक के अनुसार 2020 श्रीलंका की साक्षरता दर लगभग 92 प्रतिशत थी जबकि भारत की 78 प्रतिशत थी । विश्व के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं मूलतः भारत से संबन्धित एक अर्थशास्त्री ने तो एक समय में भारत को इन्हीं आकड़ों के कारण श्रीलंका से पीछे बताया था | ऐसे बुद्धिजीवियों के ही तर्कों और तोड़े मोड़े बयानों के आधार पर श्रीलंका के सामने भारत को रखकर कुछेक बुद्धिजीवी लोग भारत में भी ऐसी स्थिति होने के आंशिक अनुमान कर रहे हैं । ये वहीं लोग हैं जिन्होने आकड़ों के खेल में विशारद की उपाधि हासिल की है लेकिन इन सबके बीच यह ध्यातव्य है कि भारत इस वर्ष अभी तक 3.5 अरब डॉलर की मदद श्रीलंका को कर चुका है । यह मदद भोजन , रसद सामग्री के अतिरिक्त की गयी मदद है | ऊर्जा संकट के बीच भारत की तेल कंपनियाँ श्रीलंका तो तेल भी उपलब्ध करवा रही हैं |
अगर बात करें श्रीलंका और भारत के तुलनात्मक आर्थिक परिदृश्य की तो हम पाते हैं कि श्रीलंका में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के सापेक्ष ऋण का अनुपात 100 प्रतिशत से ऊपर है जबकि भारत में यह लगभग 50 प्रतिशत के आसपास है | किसी भी देश के लिए जीडीपी के सापेक्ष ऋण का 59 प्रतिशत से ज्यादा का अनुपात अनूकूल नहीं माना जाता | अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार श्रीलंका का सकल ऋण जीडीपी के प्रतिशत के आधार पर वर्ष 2016 में 79.02 प्रतिशत था जो की वर्ष 2021 में बढ़ाकर 111.42 प्रतिशत हो गया । श्रीलंका का आधे से अधिक ऋण विदेश आधारित है जबकि भारत का मात्र 3 प्रतिशत के आसपास का ऋण विदेश आधारित है । इन आंकड़ों के आलोक में उन बुद्धिजीवियों से प्रश्न किया जा सकता है जिनको भारत में भविष्य का श्रीलंका नजर आ रहा है । हां यह जरूर है कि भारत के कुछ राज्यों जैसे पंजाब और पश्चिम बंगाल में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के सापेक्ष ऋण का अनुपात 50 प्रतिशत से ऊपर है | कुछ राज्यों जैसे जम्मू कश्मीर, छतीसगढ़, मध्यप्रदेश में वित्तीय घाटा 4 प्रतिशत की सीमा को लांघता हुआ नजर आ रहा है लेकिन मजबूत मौद्रिक नीतियों और दूरगामी नीतियों के संरक्षण में हमारा देश आगे बढ़ रहा है और इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए ।
नब्बे के दशक में भारत के राजकोषीय एवम खाद्यान्न संकट को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने जिन शर्तों के तहत संभाला था उसकी ऊष्मा आज भी महसूस की जा सकती है । यही कारण है कि भारत ने खाद्यान्न सुरक्षा में आज आत्मनिर्भरता ही हासिल नहीं की है बल्कि विश्व के जरूरतमंद देशों को भी हम आपूर्ति सुनिश्चित कर रहे हैं । खाद्यान्न भंडार में हमने नवीन ऊंचाइयों को छुआ है । भारत ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने की तरफ लगातार प्रयास किए हैं ।
करेंसी स्वैप समझौते के द्वारा भारत ने पूर्व में ही अपने विदेशी कूटनीति के द्वारा विश्व के 23 देशों के साथ भविष्य में हो सकने वाली चुनौतियों को संबोधित किया है तो वहीं तेल के सामरिक रिजर्व (स्टेटेजिक रिजर्व ) बनाकर अकस्मात उत्पन्न होने वाली संवेदनशील स्थितियों में देश की ऊर्जा आवश्यकताओं का भी ख्याल रखा है । हालंकि अभी ऐसे सामरिक भंडारों को बढ़ाए जाने की आज आवश्यकता है । भारत में वर्तमान में विदेशी मुद्रा भंडार वर्ष 2014 के 322 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर लगभग 580 बिलयन अमेरिकी डॉलर पहुँच चुका है जो कि निर्यात के क्षेत्र में किए जा रहे नवोन्मेषों का ही प्रतिफल है | दुखद यह है कि वैश्विक मंच में भारत की मजबूत होती साख के इन प्रतीकों के उलट अखबारों के संपादकीय लेखों और समाचार चैनलों में भारत की श्रीलंका जैसी स्थिति होने की संभावनाओं पर विचार मंथन किया जा रहा है |
यह विचार मंथन होना आवश्यक है लेकिन इसके विषय होने चाहिए कि भाई भतीजावाद, वंशवाद , परिवारवाद के क्या प्रभाव किसी देश की प्रगति में पड़ते हैं और भारत इन सबके बीच कहां खड़ा है । विचारमंथन होना चाहिए की भारत के साथ तमाम समझौतों को तोड़ने वाले देशों को जरूरत के समय क्यों भारत मदद करता आया है | विचारमंथन होना चाहिए कि अपने नीतिगत निर्णयों को कैसे आम जनमानस तक प्रचारित प्रसारित कर जनमानस से सामंजस्य बनाकर कार्य भारत में हों | विचारमंथन होना चाहिए वंशवाद और भ्रस्टाचार को रोकने में आम भारतीय नागरिक की भूमिका पर और ऐसा चिंतन मनन आज वक़्त की मांग है |
(लेखक जय प्रकाश पाण्डेय स्वतंत्र स्तंभाकार,पूर्व बैंक अधिकारी, एवं किरोड़ीमल महाविद्यालय,दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व महासचिव रहे हैं)
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