✒️प्रेम पंचोली
उत्तराखंड राज्य अब एक लंबा सफर पूरा कर चुका है। यानी 20 बरस में जहां चार मुख्यमंत्री होने थे वहां 9 मुख्यमंत्री बने हैं, अर्थात 8 जनों ने 9 बार इस प्रदेश की कमान संभाली है।
उत्तराखंड की जनता ने जिस सपने को देखा था वह राजनीतिक दल और व्यक्ति के अहम् में जूझता दिखाई दिया। हालात यह हो गई कि जिस विधानसभा को शिष्टाचार पूर्वक चलना था वहां सदन के अंदर राजनीतिक झगड़ों के निपटारे हुए। यहां तक कि 2 बार अपनी अपनी सरकार को बचाने के लिए फ्लोर टेस्ट तक हुए। इस तरह सरकारों की अंह की लड़ाई में न्यायालय तक को हस्तक्षेप करना पड़ा। बता दें कि मुख्यमंत्री बनने की लड़ाई में राज्य के विकास यदि अवरुद्ध नहीं हुई तो अधूरे तो पड़े हुए ही हैं। उल्लेखनीय हो कि जिस राज्य की प्राकृतिक छटा लोगों को बरबस आमंत्रण देती है उस प्रकृति के संरक्षण के लिए भी यहां कोई खास कार्य दिखाई नहीं दिए। माना जाए यदि 20 बरस में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व दोहन के लिए विशेष योजना बनती तो इस राज्य में एक तरफ लोगों के हाथ में रोजगार होता है और दूसरी तरफ प्राकृतिक संसाधन पर्यटन व्यवसाय से राज्य का राजस्व बढ़ाते। मगर इस राज्य के ‘कर्णधार’ राजस्व कमाने के लिए शराब और कमीशन खोरी को हथियार बना रहे है।
इधर राज्य में कुमाऊँ की गरुड़ घाटी और गढ़वाल की यमुना घाटी कृषि के लिए बहुत विख्यात है। सरकारें आई और गई, लेकिन राज्य में कृषि विकास के लिए कोई खास कार्य सामने नहीं आ पाए। उदाहरण स्वरूप राज्य में जहां-जहां कृषि विकास केंद्र है वे सिर्फ रिपोर्ट लिखने तक या यूं कहें कि सेमिनार तक ही सिमट गए हैं।
उत्तराखंड़ के पूर्व मुख्यमंत्री और उनका कार्यकाल :
नित्यानंद स्वामी – नौ नवंबर 2000 – 20 अक्तूबर 2001
भगत सिंह कोश्यारी – 20 अक्तूबर 2001- 01 मार्च 2002
एनडी तिवारी – 02 मार्च 2002 – 07 मार्च 2007
बीसी खंडूड़ी – 08 मार्च 2007 – 23 जून 2009
रमेश पोखरियाल निशंक – 24 जून 2009 – 10 सितंबर 2011
बीसी खंडूड़ी – 11 सितंबर 2011- 13 मार्च 2012
विजय बहुगुणा – 01 फरवरी 2014- 27 मार्च 2016
हरीश रावत – 27 मार्च 2016- 18 मार्च 2017
इसके अलावा राज्य के 20 बरस के सफर में सरकारी रोजगार की कोई ठोस नीति सामने नहीं आ पाई है। सरकारी रोजगार के लिए रोजगार देना और व्यवस्थित कार्य को उस रोजगार प्राप्त व्यक्ति को देना जो जिस विभाग में सेवा दे रहा है के लिए स्थानांतरण नीति तक की माकूल आवश्यकता इस राज्य को थी, जो आज भी जस की तस पड़ी है। राज्य में आज भी यातायात की सुलभ व्यवस्था तक नहीं हो पाई है। उदाहरणतः उत्तराखंड परिवहन निगम की बसों को संचालन में अंतर दिखाई देता है। इनका परिचालन अव्यावहारिक तरीके से किया जा रहा है। जैसे पहाड़ पर चलने वाली बसें छोटी या कम सीटों वाली होनी चाहिए, बड़ी और लंबी बसे दिल्ली आदि मैदानों संचालित करनी चाहिए थी, सो नही हो रहा है। जबकि छोटी व नई बसें मैदानों में या दिल्ली तक दौड़ाई जा रही है, कह सकते हैं कि 20 बरस में एक विभाग को व्यवस्थित न करना इस राज्य की नाकामी कही जा सकती है।
हां इतना जरूर हुआ है की बहुत सारे लोग विधानसभा जैसी पवित्र सदन के हिस्सा बन गए। बहुत सारे लोगों को प्रोटोकॉल की सुविधा मिल गई। बहुत सारे लोगों को राजनीतिक पार्टियों ने अहूदे वाले पद दिए। जो अपने-अपने पदों पर राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में खूब गरियान लग गए। मगर राज्य में यातायात की सुलभ व्यवस्था और चिकित्सा, शिक्षा के लिए ठोस कार्यक्रम सामने नहीं आ पाए हैं। जबकि अधिकांश विकास के काम निर्माणाधीन है या आरंभ किए जा चुके हैं पर 20 बरस में पूरे नहीं हो पाए हैं। जिसका जीता जागता उदाहरण डोबरा चांठी पुल है। 2003 में जब टिहरी बांध की अंतिम टनल बंद कर दी गई थी, टिहरी डूब चुका था, प्रताप नगर के लोग एक तरफ झील के कारण बंद हो चुके थे, इसलिए डोबरा चांठी पुल की मांग उठी। यानी 17 बरस बाद डोबरा चांठी पुल बनकर तैयार हुआ। फलतः विकास के काम समय पर पूरा ना होना ही राज्य का पिछड़ना ही साबित हुआ है।
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