(चारु तिवारी)
‘गंगोत्री फिल्मस’ के बैनर पर सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और फिल्म निर्माता राकेश गौड़ की नई फिल्म ‘मेरु गौं’ ने उत्तराखण्ड के समसामयिक सवालों को उठाने की दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है. यह फिल्म ऐसे समय पर रिलीज हो रही है, जब देश में सरकारी तौर पर आजादी के 75 साल पूरे होने पर ‘अमृत महोत्सव’ मनाया जा रहा है. उत्तराखंड राज्य को बने भी 23 साल हो गये हैं, इन दोनों कालखंडों का महत्व और इस फिल्म का संदर्भ यह है कि आजादी के आंदोलन में उत्तराखंड के क्षेत्रीय सवाल राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े. लोगों ने जल, जंगल और जमीन पर अंग्रेज़ी जनविरोधी कानूनों से मूक्ति आजादी के साथ देखी. उन्हें लगता था कि देश आजाद होगा तो वह अपनी तरह की नीतियां बनाकर खुशहाल हो सकते हैं। लेकिन आजादी के कई दशकों बाद भी उनकी आंकाक्षाएं मूर्तरूप नहीं ले पाई। तब पर्वतीय क्षेत्र के आठ जिलों में रहने वाले लोगों को लगा कि उत्तर प्रदेश में रहकर उनके साथ भेदभाव हो रहा है। उन्हें लगा कि जब अपना पृथक पर्वतीय प्रदेश होगा तों हम स्थानीय संसाधनों को सही उपयोग कर नीतियां बनायेंगे। पहाड़ के सही नियोजन कर गांवों की तरक्की भी कर पायेंगे।
चार दशकों के आंदोलन और 42 शहादातों के बाद राज्य मिल गया। अब दो दशक से अधिक का समय बीत गया। समस्यायें वहीं खड़ी हैं, जहां से राज्य की मांग शुरू हुई थी। उत्तराखंड के लोगों की इन्हीं आकांक्षाओं और टूटते सपनों को बहुत तरीके से ‘मेरु गौं’ में रखा गया है। कहानी, विषयवस्तु, गीत-संगीत, अभिनय, फिल्मांकन, तकनीक की दृष्टि से यह फिल्म एक उम्मीद जगाती है कि उन विषयों पर अच्छी रचनात्मक फिल्में बनाई जा सकती हैं जिन्हें ‘मार्केट’ के डर से लोग हाथ लगाने से हिचकिचाते हैं या इस मुहावरे को तोड़ने की कोशिश नहीं करते जिसमें कहा जाता है ‘लोग ऐसा ही देखना चाहते हैं।’ निर्माता राकेश गौड़ और निर्देशक अनुज जोशी ऐसा कर पायें हैं, उन्हें बहुत-बहुत बधाई। शुभकामनाएं।
उल्लेखनीय है कि रोकश गौड़ ने कई चर्चित फिल्मों का निर्माण किया है। गौड़ जाने-माने रंगकर्मी हैं। जमीन से जुड़े रहने के कारण बहुत संवेदनशील भी। उनके साथ निर्देशक अनुज जोशी फिल्म के तमाम प्रारूपों की गहरी समझ रखते हैं। उन्होंने कई हिन्दी फिल्मों का सह-निर्देशन किया है। चर्चित टीवी सीरियल ‘कसौटी जिंदगी की’ के लगभग पचास एपेसोड का निर्देशन किया है। उन्होंने पहाड़ के विषयों का गहनता से अध्ययन किया है। उनकी विषय, स्क्रिप्ट, कैमरे, एडिटिंग आदि पर गहरी पकड़ है। इससे पहले वे कई गढ़वाली फिल्मों का निर्माण कर चुके हैं। इनमें उत्तराखंड राज्य आंदोलन पर बनी चर्चित फिल्म ‘तेरी सौं’ है। ‘मेरु गौं’ की कहानी, स्क्रिप्ट और संवाद भी अनुज जोशी ने ही लिखे हैं।
गढवाली फिल्म ‘मेरु गौं’ इन दोनों की समझ और पहाड़ के विषयों को आमजन तक पहुंचाने की मंशा का प्रतिफल है। ‘मेरु गौं’ में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद लोगों की आकांक्षाओं पर हुए तुषारापात, नीति-नियंताओं की दृष्टि के अभाव में उपजी निराशा, इनके कारणों और मौजूदा सवालों को बहुत तरीके से संबोधित किया गया है। राज्य बनने के बाद पलायन, रोजगार, परिसीमन, राजधानी, स्थानीय संसाधनों पर अधिकार और विकास की नई परिभाषा से लुटते पहाड़ पर अलग-अलग तरीके से बातचीत की गई है। सबसे अच्छी बात यह है कि इन सब मुद्दों पर भावनात्मक तरीके से नहीं, बल्कि नीतिगत पहलुओं से समझने की कोशिश की है।
एक गांव के इर्द-गिर्द ही घूमती इस कहानी में उन सभी पात्रों को शामिल किया किया गया है जो एक ग्रामीण, शिक्षक, प्रवासी, स्थानीय स्तर पर अलग-अलग पार्टियों का प्रतिनिधित्व या समर्थन करने वाले हैं। स्वभाविक रूप से उनके विचार भी अलग हैं. फिल्म में उन जिम्मेदार तत्वों को भी इंगित करने की कोशिश है जो किसी न किसी बहाने इन मुद्दों को हाशिए में धकेलते रहे हैं। यह कम साहस का काम नहीं है कि जहां फिल्म निर्माता ऐसी मसालेदार स्टोरी ढूंढने में लगे रहते हैं, जिनसे उनकी फिल्म चल निकले। वहीं परिसीमन जैसे महत्वपूर्ण एवं फिल्म की दृष्टि से नीरस विषय पर जोखिम उठाना प्रशंसनीय है। यह मुद्दा इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि 2026 के बाद होने वाले परिसीमन से उत्तराखंड का राजनीतिक भूगोल पूरी तरह बदलने वाला है। अच्छी कहानी, प्रभावी संवाद, भावपूर्ण अभिनय, आकर्षक फिल्मांकन, ठोस तकनीक, कुशल निर्देशन, अर्थपूर्ण गीत और कर्णप्रिय संगीत लोगों को बांधने में सफल रहेगा ऐसी उम्मीद है। उत्तराखंड के सभी जान-पहचाने कलाकारों से सुसज्जित पूरी फिल्म लोगों को पसंद आयेगी। राकेश गौड़ जी और अनुज जोशी जी को फिल्म के रिलीज होने की अग्रिम बधाई। शुभकामनाएं। आप सब इस फिल्म को जरूर देखियेगा |
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