(देवेंन्द्र चमोली)
आज मैं उस लचर और लाचार स्वास्थ्य व्यवस्था की बात कर रहा हूं जिसका भुक्तभोगी हुआ एक राज्य आंदोलनकारी, जिसने कभी सोचा भी नहीं होगा कि जिस राज्य की कल्पना के मूल में बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर आंदोलन किया जेल की यात्रा की , सरकारी दमन की त्रासदी झेली | आज उसी राज्य निर्माण के 20 वर्ष बाद भी अपने गृह जनपद का स्वास्थ्य महकमा उनके ईलाज के लिये लाचार दिखे। एंबुलेंस में ही डाक्टर मेडिकल औपचारिकता पूरी कर सुविधाओं का टोटा कहकर रैफर करने को विवश हो गया।
मामला जनपद रुद्रप्रयाग का है यहां बात पहाड़ में अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं हों, ऐसी कल्पना को लेकर पृथक राज्य आंदोलन में “आज दो अभी दो, उत्तराखंड राज्य दो” के नारे के साथ पर्वतीय आम जनमानस की अपेक्षा को लेकर सड़कों पर उतरे उस शख्स की हो रही, जिसने अपने पारवारिक दायित्वों को दरकिनार कर उत्तराखंड राज्य निर्माण में यातनाएं झेली व जेल की यात्रा की।
मैं तब हतप्रभ रह गया जब 75 वर्षीय राज्य आंदोलनकारी रुद्रप्रयाग के रुमसी ग्राम के मूल निवासी अवतार सिंह राणा को, अपने जनपद के जिला अस्पताल में सुविधाओं का टोटा होने के चलते एंबुलेंस में ही डाक्टर ने चैक करने की औपचारिकता पूरी कर रैफर कर दिया।
यहां मैं इस कोविड काल में रात दिन एक कर अपने स्तर से कुछ अच्छा करने का प्रयास कर रहे उन कोरोना वारियर्स की कर्तव्य निष्ठा, योग्यता, क्षमता पर प्रश्न नहीं कर रहा हूं, मेरा प्रश्न सीधे सीधे 20 वर्ष के उस उत्तराखंड़ की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था से है, जिसकी अक्रमण्यता के कारण आज उत्तराखंड़ के जिला स्तरीय अस्पतालों में डाक्टर सुविधाओं के अभाव में ऐसे लाचार होने को विवश है।
सांय लगभग चार बजे का समय जिला अस्पताल में राज्य आंदोलनकारी जनपद वासियों के हर संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाने वाले अवतार सिंह राणा को उनका ज्येष्ठ पुत्र संजय जब एंबुलेंस से अपने गॉव से जिला अस्पताल लाया तो वहाँ ड्यूटी पर तैनात डाक्टर ने उन्हें हायर सेंटर रैफर करने में ही भलाई समझी | क्योंकि जनपद के सबसे बड़े अस्पताल में उचित स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध न होना डाक्टर की विवषता थी।
कहते है ” समय बड़ा बलवान” कोरोना संक्रमण से ग्रसित 75 वर्षीय अवतार सिंह राणा के साथ नियति ने ऐसा खेल खेला कि सुनने वाला हर कोई स्तब्ध रह जायेगा। कुछ समय पूर्व कोरोना पॉजिटिव होने के बाद स्वास्थ्य खराब होने पर उनका छोटा बेटा उन्हें कोविड अस्पताल रुद्रप्रयाग में एडमिट करने लाया, दूसरे दिन घर जाते समय बेटे को अकाल मृत्यु ने अपने आगोश में ले लिया | एक हफ्ते तक कोविड अस्पताल में उपचाराधीन राणा को इसकी जानकारी नहीं दी गई । लेकिन जब रिपोर्ट नगेटिव आने के बाद उन्हें स्वस्थ होने पर डाक्टरों द्वारा उन्हें घर भेजा गया, तो यह दुःखद समाचार सुन वे कोमा जैसी स्थिति में चले गये । आज उनका ज्येष्ठ पुत्र अपने परिजनों के साथ उन्हें एंबुलेंस से जिला अस्पताल लाये, पर लचर स्वास्थ्य व्यवस्था व सुविधाओं के अभाव में लाचार डाक्टरों द्वारा उन्हें एंबुलेंस में ही औपचारिकता कर हायर सेंटर रैफर करने को विवश होना पड़ा।
बहरहाल नियति को जो मंजूर है उस पर किसी का बस नहीं है लेकिन इसके बीच बड़ा प्रश्न यह है कि जिस पर्वतीय क्षेत्र की जनता ने अपने लिये अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं की उम्मीद को लेकर पृथक राज्य की कल्पना की और तमाम यातनाएं , सरकारी दमन झेलकर राज्य निर्माण को मुकाम तक पहुंचाया | आज राज्य बनने के दो दशक वाद भी जिला स्तरीय अस्पतालों की ऐसी बदहाल स्थिति क्यों बनी है। ऐसी स्थिति जब जिला अस्पताल की है तो ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं का क्या हाल होगा। क्या कभी ऐसी लचर व लाचार स्वास्थ्य व्यवस्थाओं से जनता को निजात मिल पायेगी.?
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