Sunday, November 24, 2024
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एक शाम रायपुर की ‘इगास बग्वाल’, बूढ़ी दीपावली, देव दीपावली के नाम, महामहिम राज्यपाल ने किया कार्यक्रम का शुभारंभ

देहरादून, एक शाम रायपुर की ‘इगास बग्वाल’, बूढ़ी दीपावली, देव दीपावली के नाम कार्यक्रम का आयोजन रायपुर के विधायक उमेश शर्मा काऊ द्वारा आयोजित किया गया, कार्यक्रम रिंग रोड़ पर आयोजित किया जा रहा है | महामहिम राज्यपाल उत्तराखण्ड़ मुख्य अतिथि के रूप में कार्यक्रम को शोभा बढ़ायेंगे, कैबिनेट मंत्री सुबोध उनियाल, कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत, धर्मपुर विधायक विनोद चमोली, राजपुर विधायक खजानदास, भाजपा नेता विनय गोयल ॠषिकेश नगर निगम की मेयर अनीता ममगांई आ चुके हैं, जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण, संगीता ढ़ौढ़ियाल भी कार्यक्रम में अपनी प्रस्तुति देंगे, कार्यक्रम जारी है….!

क्यों मनायी जाती है ‘इगास बग्वाल’ :

पहाड़ की दीपावली, इगास को मनाने के पीछे दो प्रमुख कारण सर्वविदित हैं | पहले कारण में पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्रभु श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर लोगों ने कार्तिक अमावस्या को दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन सुदूर गढ़वाल क्षेत्र में प्रभु राम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली | यही कारण है कि इस छेत्र में दीपावली के देर से जलाए गए जो कालांतर में यहाँ इगास के नाम से मशहूर हो गयी |
वही एक दूसरी मान्यता के अनुसार दीपावली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत के साथ युद्ध में शानदार जीत प्राप्त की थी। चूंकि सैनिकों के परिजनों समेत आम लोगों ने भी उस वर्ष चिंता में दीपावली नहीं मनाई गयी | और जब युद्ध समाप्त होने के ठीक ग्यारहवें दिन सैनिक अपने घर पहुंचे तभी दीपावली मनाई थी।
वहीं एक मान्यता और है कि हरिबोधनी एकादशी यानी ईगास पर्व पर श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं और इस दिन विष्णु की पूजा का विधान है । उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। वहीं शास्त्रों के अनुशार देवताओं ने इस अवसर पर भगवान विष्णु की पूजा की थी । इस कारण इसे देवउठनी एकादशी भी कहा गया।May be an image of 5 people and people standing
इगास को लेकर अमूमन प्रत्येक उत्तरखंडी के मन में जो सबसे अमिट तस्वीर उभरती है वह है भैलो खेल की | इस दिन आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा है, जो सदियों पुरानी है। भैलो के लिए रस्सी में चीड़ की लकड़ियों की छोटी-छोटी गांठ बांधी जाती है। जिसके बाद गांव के ऊंचे और खुले स्थान पर पहुंच कर लोग इन लकड़ी के भैलो में आग लगाते हैं। इसे खेलने वाले रस्सी को पकड़कर सावधानीपूर्वक उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं। इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है। इस दौरान कुछ गीत गाने, व्यंग्य-मजाक करने की परंपरा भी है।
इगास के दिन गायों को लेकर विशेष पूजा भी की जाती है | सुबह से लेकर दोपहर तक गोवंश की पूजा करने के बाद मवेशियों को भात, झंगोरा, बाड़ी, मंडुवे आदि से तैयार आहार खिलाया जाता है | इस परंपरा में पहले मवेशियों के पांव धोए जाते हैं और फिर दीप-धूप जलाकर उनकी पूजा की जाती है। माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। साथ ही घरों में पूड़ी, स्वाली, पकोड़ी, भूड़ा आदि पकवान बनाकर उन सभी परिवारों में बांटे जाते हैं, जिनकी बग्वाल नहीं होती ।
विगत कुछ दशकों से विकास की चकाचौंध में इगास बग्वाल की रोशनी गुम सी हो गयी थी | लेकिन पिछले कुछ एक सालों में सरकारी और गैर सरकारी कोशिशों ने पहाड़ की इस समृद्ध परंपरा से नज़रें चुराते लोगों को एक बार फिर से पलटकर इसे देखने पर विवश कर दिया है | उम्मीद है कि इगास जैसे पारंपरिक त्यौहार की बढ़ती लोकप्रियता, सांस्कृतिक हीनता से ग्रसित युवा पीढ़ी को फिर से खुद गौरवान्वित होने का अवसर प्रदान करेगी |

 

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