हरिद्वार (कुल भूषण शर्मा) जीवन जीने का नाम है। जीवन को जीने के लिए बुद्वि, ज्ञान एवं संस्कार जैसे मूल्यपरक गुणों का होना जरूरी है। जिनके माध्यम से संसाधनों का उपयोग, प्रेरणा एवं मार्गदर्शक का होना उतना ही जरूरी है जितना एक नाव को चलाने के लिए चालक तथा सफर के लिए नाविक का होना।
मसालों की दुनिया के बादशाह कहे जाने वाले महाशय धर्मपाल गुलाटी का जीवन एक सामान्य तथा मेहनतकस व्यक्ति के लिए प्रेरक उदाहरण से कम नही है। अपने जीवनकाल मे उन्होने अनेक उतार-चढाव का सामना किया। आर्य समाज के शिखर पुरूष होने के साथ सामाजिक उन्नयन तथा जरूरतमंद लोगों के लिए उनके मन मे एक अलग भाव रहता था। जरूरतमंद लोगों की मदद करने के लिए वह सदैव आगे रहते थे, इसलिए उनकी मदद प्राप्त करने वाले उन्हे भामाशाह तथा दानवीर आदि अनेक संज्ञाओं से उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते है। उन्होने फर्श से अर्श तक का मुकाम हासिल करने में जीवन की कठिन राहों से चलकर यह सफलता प्राप्त की ।
गुलाटी के पिता का नाम महाशय चुन्नीलाल और माता का नाम चानन देवी था। वह पाकिस्तान के सियालकोट में 27 मार्च 1923 को पैदा हुए थे। 1933 में उन्होंने 5वीं के बाद स्कूल की पढ़ाई छोड़ दी थी। पाकिस्तान से भारत आने के बाद धर्मपाल गुलाटी ने 650 रुपये में तांगा खरीदा था। उस वक्त उन्हें तांगा चलाने भी नहीं आता था। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें तांगा चलाने भी नहीं आता था। वह धीरे-धीरे चलाना शुरू किए। उन्होंने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से कुतुब रोड और करोल बाग से बारा हिंदू राव के लिए तांगा चलाया।
1500 रुपये लेकर भारत आए गुलाटी ने करोड़ों का कारोबार शुरू किया। 98 साल की उम्र में भारत सरकार द्वारा उन्हे पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।
आर्य समाज की अग्रणी संस्था गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय से भी उनका अनूठा प्रेम रहा है। गुरूकुल कांगडी के अनेक कार्यक्रमों मे उनकी उपस्थिति लोगों को उत्साहित एवं प्रेरणा प्रदान करती रही है। 03 दिसम्बंर 2020 को हदय गति रूकने के कारण उनका निधन हो गयाधर्मपाल गुलाटी जैसे जिंदादिल व्यक्तित्व का हमारे बीच से चला जाना एक अपूरणीय क्षति है। जिसको भविष्य में भरा जाना असम्भव प्रतीत होता है।
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