हल्द्वानी, गौलापार के लक्ष्मपुर गांव में रहने वाली दो महिलाओं के जीवन में घटी घटनाओं ने उन्हें अंदर तक ऐसा झिंझोरा कि उनका दिमाग सदमें को बर्दाश्त नहीं कर सका और अब दोनों महिलाएं मानसिक विक्षिप्तता की स्थित में आ गई है। सुधबुध खो चुकी इन महिलाओं को न तो अपने तन की परवाह है और न ही घर—परिवार की। उनकी हालत पर दया करके स्थानीय लोग उन्हें कपड़े और खाना तो देते हैं लेकिन उनकी हालत ऐसी नहीं कि बिना नियमित उपचार के उन्हें स्वस्थ किया जा सके। स्थानीय लोगों ने प्रशासन से आग्रह किया है कि दोनों महिलाओं को महिला पुनर्वास केंद्र में स्थान देकर उनका मानसिक उपचार कराये ताकि ठीक हो कर वे भी घर परिवार वाली हो सकें। एक एक कर जानते हैं दोनों महिलाओं की कहानी :
घटना आज से 11—12 साल पहले की है। लक्षमपुर गांव में रहने वाले मनोहर यिंह बसेड़ा अपनी पत्नी उमा देवी और तीन बच्चों के साथ चैन से जहवन गुजार रहे थे। तब उनका कच्चा मकान था, जिसमें छप्पर पड़ा था। एक रोज छप्पर में आग लगी और मनोहर का पूरा आसियाना जल कर राख हो गया। ग्रामीणों की मदद से उमा देवी और दो बच्चों को तो निकल लिया गया लेकिन उनका तीन —चार साल का एक बेटा आग में जिंदा ही जल गया। यह पूरी घटना उमा देवी ने अपनी आंखों से देखी; वह अपने सीने के टुकड़े को चाहते हुए भी बचा नहीं सकी। बस उसी दिन से उनकी जिंदगी पलट गई,
बेटे को खोने का सदमा उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ और उमा देवी डिप्रेशन में चली गई। वक्त के साथ परिवार के सभी लोग हादसे को भूल कर अपनी जिंदगी की गाड़ी को पटरी पर लाने के प्रयास में उलझ गए। बच्चे बड़े होते गए। पति ने भी परिवार चलाने को हल्द्वानी में सुरक्षागार्ड की नौकरी कर ली।
अब मनोहर सिंह बसेड़ा सुरक्षाकर्मी की तन्ख्वाह से परिवार चलाते या पत्नी का इलाज करते। मजबूरी वश उन्होंने बच्चों का भविष्य बनाने की राह चुनी। उनका बड़ा बेट तकरीबन बीस वर्ष का है। कुछ साल तक तो मनोहर सिंह पत्नी को जैसे—तैेसे घर पर रखे रहे लेकिन उमा देवी का मर्ज लगातार बढ़ता गया और आखिर में उमा ने विक्षिप्तता की हालत में घर से बाहर कदम रखा। अब उनके मूड पर निर्भर रहता है कि वे शाम को घर लौटेंगी या फिर कहीं भी अपनी रात गुजार लेगी।
दिक्कत यह है कि परिजन उन्हें घर ले जाए भी तो वे मौका देखकर घर से कोई भी सामान उठाकर भाग निकलती हैं। वे वस्त्र पहन कर घूम रहीं है या नहीं उन्हें यह भी होश नहीं रहता। ऐसे में उनके सामने पड़ने वाले ग्रामीण अपने आप को असहज पाते हैं। पिछले दिनों उनके सिर में गहरा घाव देखकर कुछ समाज सेवियों ने उनका उपचार तो किया लेकिन नियमति उपचार के अभाव में जख्म कब ठीक होगा किसी को पता नहीं। उन्हें किसी ऐसे आश्रम की आवश्यकता है जिसमें उनका मानसिक और शारीरिक उपचार दोनों हो सकें। निश्चित रूप से सरकारी सहायता के बिना यह संभव नहीं होगा। ग्रामीणों ने प्रशासन से अपील की है कि उन्हें महिला आश्रम में या फिर सरकारी मानसिक स्वास्थ्य केंद्र में भर्ती कराया जाए।
कुसुम की कहानी भी अपनी ही गांव की रहने वाली उमा बसेड़ा से जुदा नहीं है। उनके साथ भी वैसा ही कुछ हुआ। लगभग पंद्रह साल पहले एक हादसेमें उनके पति त्रिलोक बेलवाल का निधन हुआ तो परिवार चार बच्चों और बूढ़ी सास को संभालने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आन पड़ी। वे जिंदगी की भागदौड़ में व्यस्त होतीं इससे पहले ही उनकी सास का भी निधन हो गया। कुसुम अकेली रह गई। अवसाद की शिकार कुसुम कब विक्षिप्तता की सीमा में प्रवेश कर गई उन्हें पता ही नहीं चला। बाद में पति की बहन आई और बच्चों को अपने साथ ले गई। एक बेटी की शादी कर दी गई है जबकि दूसरी अभी पढ़ रही है। एक बेटा कहीं लापता हो गया और बड़ा वाला जैसे तैसे अपना पेट भर रहा है। कुसुम का घर है और उसमें किरायदार भी हैं,लेकिन कुसुम कभी कभार ही अपने घर की रहा पकड़ती हैं। वे पूरा दिन इधर उधर भटकती रहती है। किसी ने कुछ दे दिया तो खा लिया, किसी ने कपड़े दे दिए तो पहन लिए। लगभग 42 वर्षीय कुसुम को भाी सराकारी मदद की दरकार है।
सामाजिक कार्यकर्ता ललित प्रसाद आर्या के अनुसार परिस्थितिवश इस हालात तक पहुंची दोनों महिलाओं को सरकारी मदद की नितांत आवश्यकता है। उन्हें देखरेख के साथ उपचार की भी जरूरत है। वे कहते हैं उनकी जितनी मदद हो सकती है हम कर ही रहे हैं लेकिन जो काम चिकित्सालय में हो सकता है उसे सड़क पर नहीं किया जा सकता (साभार सत्यमेव जयते)।
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