Sunday, December 22, 2024
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आंखों को भिगो गई “कारा एक प्रथा” गढ़वाली फ़िल्म

-दमदार कथानक, अभिनय, निर्देशन, संगीत ने जीता दर्शकों का दिल

-फ़िल्म की शुरुआत से अंत तक कुर्सी से हिल नहीं पाए दर्शक

देहरादून(एल मोहन लखेड़ा), सामाजिक सरोकार और सांस्कृतिक ताने बाने को लेकर बनी गढ़वाली फिल्म ‘कारा’ ने एक सोचनीय प्रश्न खड़ा कर दिया कि क्या पहाड़ में “कारा” नाम से एक सामाजिक प्रथा प्रचलित रही है। इस प्रथा पर फ़िल्म बनी तो पहली बार इसके बारे में पता चला। फ़िल्म का सशक्त कथानक शुरू से अंत तक दर्शकों को कुर्सी से बांधे रखता है। पहाड़ की महिलाओं के जीवन को चरितार्थ करती यह फ़िल्म बरबस आँखों को नम कर देती है।
निर्देशक-लेखक सुनील बडोनी और फ़िल्म की प्रोड्यूसर परिणीता बडोनी ने अपने संसाधनों पर हिस्टोरिकल फ़िल्म बनाई है। उन्होंने एक ऐसा विषय चुना, जो महिलाओं को बेड़ियों से मुक्त करता है और उन्हें स्वाभिमान के साथ जीने की आज़ादी देता है। इसके लिए आप दोनों बधाई के पात्र हैं। यह फ़िल्म उत्तराखंड के हर एक हिस्से में दिखाई जानी चाहिए। सरकार को इसके लिए पहल करनी चाहिए।
फ़िल्म में मोना जैसे नकारात्मक किरदार के बावजूद रमेश रावत ने दर्शकों के दिल में एक अलग छाप छोड़ी है। उनका 15 वर्ष का थियेटर का अनुभव काम आया। जमुना के किरदार में शिवानी भण्डारी ने न्याय किया है। बेहतरीन डायलॉग डिलीवरी के साथ उनका मंगलसूत्र फेंकने वाला सीन कमाल का है। प्रधान जी के किरदार में श्री अजय सिंह बिष्ट और पंडित की भूमिका में दिनेश बौड़ाई का अभिनय काबिले तारीफ है। फ़िल्म में राजेश मालगुडी और साक्षी काला का छोटा रोल होने के बावजूद उन्होंने दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। सरपंच की भूमिका में रोशन धस्माना ने सराहनीय अभिनय किया है।
सहायक कलाकर के तौर पर अजय बिष्ट, कुसुम बिष्ट, संयोगिता ध्यानी, वीरेंद्र असवाल, रमेश नौडियाल, इंदु रावत, विनीता नेगी, दिव्या ने भी बढ़िया अभिनय किया है। संतोष खेतवाल और आशीष पंत का संगीत, सारांश बडोनी की सिनेमेटोग्राफी बेहतरीन है।

यह है फिल्म की कहानी :

फ़िल्म में शराबी पति से प्रताड़ित जमुना की मार्मिक कहानी दिखाई गई है। जमुना तीन बहिनों में सबसे बड़ी है। उसके सिर से पिता का साया बचपन में ही उठ जाता है। उसकी विधवा मां के कंधों पर तीन बेटियों के पालन-पोषण और पढ़ाई-लिखाई की जिम्मेदारी आ जाती है। अपनी मां के बोझ को कम करने के लिए जमुना घर पर ही सिलाई का काम शुरू करती है। इस बीच उसके लिए गांव के ही पंडित जी शादी का एक रिश्ता लेकर आते हैं और उसकी मां को पैसे दे जाते हैं। इस रिश्ते को जमुना यह कहकर ठुकरा देती है कि जो व्यक्ति पैसे देकर शादी करना चाह रहा हो, वो मुझे कैसे खुश रख पाएगा। वैसे भी अभी दो छोटी बहिनों को पढ़ाना-लिखाना है और घर का खर्चा चलाना है। मां की सबसे बड़ी चिंता बेटियों की शादी की है।
इस बीच अपने घर की माली हालत से तंग आकर जमुना की सबसे छोटी बहिन आत्महत्या कर देती है। इससे परिवार को बड़ा झटका लगता है। मां के दबाव में जमुना की शादी मोना नाम के एक शराबी से होती है। मोना पहले से शादीशुदा है और उसकी पहली पत्नी उसकी प्रताड़ना से दुःखी होकर उसे छोड़कर भाग जाती है।
शराब के नशे में मोना अपनी पत्नी जमुना के साथ मार-पिटाई करता, उसे ज़लील करता और उस पर शक करता। शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता, जिस दिन जमुना प्रताड़ित न होती। एक दिन मोना ने उसे धक्के मारकर घर से ही बाहर निकाल दिया।
इस बीच गांव के प्रधान जमुना को अपनी बेटी के रूप में अपनाते हैं और उसे अपने घर में शरण देते हैं। पंडित, प्रधान के पास जमुना के विवाह का प्रस्ताव लाते हैं और उन्हें कारा प्रथा के बारे में बताते हैं। कारा एक ऐसी सामाजिक प्रथा है, जिसमें बिना किसी क़ानूनी पचड़ों के घरेलू हिंसा की शिकार महिला अपने पति को छोड़कर दूसरा विवाह कर सकती है। इससे पूर्व पहले वाले पति को शादी में हुए खर्चे को लौटाना होता है। फ़िल्म का अंत बड़ा मार्मिक है। मां शक्ति पिक्चर्स के बैनर तले बनी इस फ़िल्म को मूल निवास, भू-क़ानून संघर्ष समिति के साथ पर्वतीय सरोकार से जुड़े दर्शक हाथो हाथ ले रहे हैं, फिल्म मॉल ऑफ देहरादून में दोपहर 01.00 बजे के शो में चल रही है। वहीं अब तक की निर्मित सभी गढ़वाली फिल्में जहां पर्वतीय तानेबाने को लेकर दर्शकों के समक्ष प्रदर्शित हुयी हैं लेकिन इस फिल्म ने सार्थक रुप में “कारा” जैसे पारंपरिक नियम भी प्रचलित रहे हैं का आभास करा दिया। जो हमारी मातृशक्ति को आत्मसम्मान से जीना सिखाती है।

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