(मनखी की कलम)
15 मई के बाद यानी जेठ महिना छिल्ले निकालने का माह होता था। पूर्व में एक पखवाड़ा इसी के लिए समर्पित था। हमारे पहाड़ की आर्थिकी का आधार कृषि और पशुपालन था। बिना मवेशियों की खेती नहीं होती थी, और बिना खेती के मवेशी नहीं पलते थे। यह एक दूसरे के पूरक थे। इनके साथ ही इनको आगे बढ़ाने में भीमल के तने जिनको हमारे ईधर केड़े कहते हैं, उनकी महत्पवूर्ण भूमिका थी। उस दौर में जिसके सबसे ज्यादा भीमल का पेड़ होता था वह उतना धनी था। गॉव की मातृ शक्ति सबसे ज्यादा खेत के मेंड़ों में भीमल के पेड़ को ही उगाती थी।
भीमल का पेड़ अर्थव्यवस्था यानी कि घर, खेती और पशुपालन में बहुत ही उपयोगी होता था। भीमल के पेड़ का घास बहुत अच्छा माना जाता है, जिसे गाय चारा के रूप में सर्वाधिक पंसद करती हैं, विशेषकर दूध देने वाली गाय को भीमल का चारा खिलाया जाता था। भीमल के पेड़ के तने जिनको हम केड़े कहते हैं, उनको अप्रैल माह के शुरू में नदी में पानी रोककर जिसको हम रौ या डंण्डी कहते हैं, उसमें तरीके से बिछाकर रखे जाते हैं। एक दिन पूरा परिवार सारे भीमल के तने यानी केड़े लेकर गदेरे या नदी में जाते थे और पूरा दिन व्यवस्थित तरीके से उन्हें पानी में बिछाकर आते थे, केड़े को पानी के डंडी में इस तरह से बिछाये जाते थे कि केडे के अगला हिस्सा जो पतला होता है, उन्हें लंबवत् इस तरह बिछाया जाता कि उनके दोनों ओर से सिरे मिल जाय। उनके ऊपर दो तीन मोटे मोटे तने वाले केड़े को दोनों ज़ड़ और सिरों की ओर से पड़ी रेखा की तरह रख दिया जाता है, साथ ही बड़े बड़े पत्थर रखे जाते थे ताकि पानी में डूबे रहें। लगभग सवा महीना तक पानी में रखने के बाद इनको निकाला जाता है।
केड़ा निकालना भी गॉव में उत्सव जैसा होता था, सब सामूहिक रूप में गदेरे मेंं जाते थे और एक दूसरे की केड़े निकालने में मदद करते थे। पहले पानी से उनको निकालना, वहॉ पर उन्हें, बड़े पत्थरों पर जोर जोर से पटकर जिसको हम स्थानीय भाषा पछोड़कर मारते थे, ताकि ऊपर की छाल निकल जाय। कई बार पानी में धोना फिर छपोड़ना इस तरह प्रकिया जारी रहती, उसके बाद कुछ रेशे और छिल्ले वहीं निकाले जाते थे, और कुछ रेशे के साथ घर लेकर आते थे।
मई के अतिंम दो सप्ताह से लेकर जून के प्रथम सप्ताह तक बड़े बुजुर्ग एवं बच्चे सभी मिलकर छाॕव में बैठकर, छिल्ले से रेशे अलग करते रहते थे। फिर उन रेशे (स्योळू) को सुखाते थे और छिल्लों को तोड़कर छोटी छोटी गठरी बनाकर रख देते थे। यह छिल्ले आग जलाने के काम आते थे। गोठ में वाड़ में जाते हुए, रामलीला, दूर गॉव में शादी विवाह में आते जाते वक्त इन छिल्लों को जलाकर ले जाते थे। कुल मिलाकर यह टॉर्च के जैसे इस्तेमाल होते थे।
वहीं स्योळू यानी रेशा तो कृषि का मुख्य आधार था। रेशे से गाय बैलों के लिए रस्सी बनती थी, घर में जितनी भी रस्सियॉ मसलन जूड़े, म्वाळ, तंझले, नाड़ू, हळ जोत, चारपाई बुनने के लिए नयार, बैलों के गले पर घंटी बॉधने के लिए दौणी, घास बॉधकर लाने के लिए रस्सी, बर्तनों के नीचे रखने के और सिर पर पानी लाने के लिए डीलू बनता था। यानी कि भीमल के यह रेशे बहुत ही उपयोगी थे। इसके अलावा कच्चे भीमल की रस्सी से सिर धोते थे जिसको सिरसळू कहते थे।
मई के अतिंम दो सप्ताह में पूरे घर गांव के आगे पीछे सब जगह छिल्ले और स्योळू ही नजर आता था। यह भी उस समय का एक प्रमुख कार्य था, जिसके जितने अधिक छिल्ले वह उतना ही अधिक सम्पन्न होता था। आज गॉव में भीमल के रेशे की जगह प्लास्टिक के कट्टे अथवा साड़ियों ने ले ली है। छिल्लों की जगह गैंस ने ले ली है, कुछ लोग आज भी थोड़े मात्रा में उपयोग कर रहे हैं।
गांव में हर कोई कार्य मेहनत के साथ साथ सामूहिक उत्सव का भी होता था जिसमें सभी लोग एक साथ मिलकर कार्य करते थे, इससे सामुदायिकता और एकता और परस्पर प्रेम भाव बना रहता था। आज सर्व सम्पन्नता है किंतु आपसी प्रेम को सम्पन्नता ने संकीर्ण कर दिया है।
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