(डा. पवन कुदवान)
यह बड़ी विडम्बना है, देवभूमि उत्तराखण्ड की जहाँ लोक संस्कृति एवं लोक विरासत पर इतना शोर होता है और शोर विदेशों तक भी पहुँचता है किंतु जो इस लोक विरासत के जमीनी धरोहर है, उन्हें यह आज तक भी क्यों नहीं सुनाई देता है ? मुझे यह कहने में लेशमात्र भी संकोच नहीं है कि उत्तराखण्ड की ऐतिहासिक निर्माण शैली पर शिल्पी समाज का स्वामित्व रहा है |
यह बात मैं नहीं वैश्चिक ख्याति प्राप्त इतिहासकार पद्मश्री प्रो. शेखर पाठक के कथन से भी प्रमाणित हो जाती है -” ताम्रपत्र, मंदिर, बावड़ी, पुराने किले आदि पुरातात्विक शिल्प दलितों की दक्षता है, ब्राह्मणी परम्परा उत्तराखण्ड में बहुत बाद में आयी है |” निसंदेह शिल्पी समाज हिमालयी संस्कृति और सभ्यता का ऐतिहासिक निर्माता रहा है, उसने यहाँ की चट्टानों को काटकर मंदिर शिल्प दिया, काष्ठ कलाकृतियों में भवन निर्माण से लेकर कृषि उपकरणों का शिल्पी रहा है, सांस्कृतिक बौद्धिक धरोहर में यहां का ऐतिहासिक शौर्य गाथाओं से लेकर नाच गाने की अदभुत दक्षता का वाहक रहा है | यही कारण है कि यह राज्य मौलिक एवं विशिष्ट बुनियाद रखता है |
भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विशिष्टता होने के कारण यह भू-भाग ऐतिहासिक स्वरूप से ही मौलिक रहा है, श्री देव सुमन ने 1938 में कांग्रेस के गढ़वाल, श्रीनगर अधिवेशन में पं.जवाहर लाल नेहरू के सम्मुख अलग राज्य निर्माण की बुनियाद रख दी थी | चिंतन मनन एवं संघर्ष की राजनीति में राज्य निर्माण एक आंदोलन के रूप में पनपा, अंततः 9 नवम्बर,2000 को राज्य स्थापना का गौरव मिला | इस संघर्ष में देवभूमि वासियों ने रामपुर तिराह काण्ड जैसी बर्बरता भी झेली और शहादतें भी दी | राज्य बनने के बाद राज्य निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाने वाले लोगों को राज्य ने राज्य आंदोलनकारी का दर्जा उनके मान सम्मान एवं आभार व्यक्त करने हेतु दिया, जो सुखद एवं प्रशंसनीय है |
देवभूमि में देवताओं को जगाने और सुलाने वाले “दास” औजी, बाजगियों ने अपने ढोल, नगाड़े, रणसिगें से लोगों में जोश, शौर्यता भरी एवं प्रथम पंक्ति में खड़े होकर नेतृत्त्व किया | इस बात को कोई भी उत्तराखण्ड़ वासी नकार नहीं सकता है, फिर इन्हें राज्य आंदोलन का मान सम्मान राज्य आंदोलनकारी के रूप में भले नहीं भी मिलता किंतु इस ओर शोर करने वालों ने कभी इस बात का नामोल्लेख नहीं किया, आखिर क्यों… ?
यह एक ऐसा प्रश्न है जो बार-बार भले यहाँ के ढोलियों की कम जागरूकता के कारण नहीं पूछा गया है, लेकिन अब यह प्रश्न यहां की काम विभाजन व्यवस्था से पूछना स्वाभाविक है ? औजी, दासों के शिल्प पर यहां का बौद्धिक मानस खूब राजनीति एवं झूठी प्रशंसा में इन्हें बाँधे रखता है | इन्हें परम्परागत दायरे में रखने के लिए इनकी दासता को ईश्वरीय नाता भी देता है, ये लोग भी “सरस्वती पुत्र” एवं भगवान शंकर का नाम ‘महेश दास’ में खुश भी होते हैं, स्वयं की उत्पत्ति परम ब्रह्मा से मानते हुए आज तक जमीनी गौरव के भटकाव में हैं |
इस वर्ग के भाग्य में कहीं से भी मान सम्मान का गौरव नहीं प्राप्त हुआ है, बाबा साहब डा. बी.आर.अम्बेडकर द्वारा देय आरक्षण भी शिल्पी समाज की अन्य श्रेणियां अधिक लाभान्वित हुई | ये इस लाभ में भी पीछे रहें हैं, दोष इसमें इनका यह है कि इन्हें ढोल प्यारा है ढोल संस्कृति इन्हें अति प्यारी है इसमें वे अपना सदियों का इतिहास झोंककर भी वर्तमान नहीं सुधार पाये | यहां के बुद्धिजीवियों को इनके संबंध में सार्थक भावना रखते हुए राज्य आंदोलनकारी चिन्हित हेतु सरकार से मांग करनी चाही थी | एक भी औजी राज्य में यह सम्मान पा लेता तो भी बात चर्चा की न होती | किंतु ऐसा नहीं हो पाया! उत्तराखण्ड में केवल उत्तरकाशी के चिन्यालीसौड़, बड़ेती के कुछ सर्वणों ने इनके लिए यह मांग जरूर उठाई थी | इसके अलावा अन्य कहीं से आज तक कोई आवाज बुलंद नहीं हुई है |
पूर्व सेवानिवृत्त आईएएस चंद्र सिंह जो औजियों को राज्य आंदोलनकारी का दर्जा दिलाने हेतु 2016 से अपने खर्चे से मानवाधिकार आयोग में दलीलें दे रहें हैं, किंतु उन्होंने बड़ा अफ़सोस एवं चिंता व्यक्त की कि सर्वण समाज तो अपनी भूमिका जैसे भी निभायें कोई बात नहीं, किंतु आरक्षण से प्राप्त राजनीति में प्रतिनिधित्व वाले नेता, मंत्री, सांसद एवं यहां के संस्कृतिकर्मी अपना मुख मौन रखते हैं | यदि ये नामी लोग इन लोगों का पक्ष रखते तो सरकार के भी पसीने अवश्य छूट जाते, लेकिन ऐसा वे इसलिए नहीं करते हैं कहीं उनकी वैयक्तिक प्रतिष्ठा/प्रगति में बाधा न आये | उन्होंने सेवा के दौरान के संस्मरण सुनाये जो लेखक/पत्रकार प्रेम पंचोली जी की पुस्तक ‘कसक की कसौटी’ में उल्लेखित है |
इस पुस्तक में इन्होंने बताया की मुझे 2 अक्टूबर 1994 का रामपुर तिराह काण्ड के जख्मी आंदोलनकारियों को मिलने रूड़की राजकीय चिकित्सालय में प्रतिदिन जाना होता था | मैं उस समय हरिद्वार विकास प्राधिकरण में उपाध्यक्ष पद पर तैनात था | अन्य घायलों के साथ ढोल वादकों को भी मैंने वहाँ देखा, चमोली जनपद के जिलाधिकारी के दौरान मुझे आंदोलनकारियों से मिलने गैरसैंण जाना होता था, उन्होंने बताया कि वहां एकत्रित भीड़ में भी मैंने ढाेल, नगाड़े, नरसिंगे,भेरी में स्थानीय औजी एवं उनके वाद्य यंत्रों की थाप पर जोरदार उदघोष की गूँज सुनी, आंदोलनकारियों के साथ ये सभी भी भूख हड़ताल पर थे | उन्होंने बताया इस बात की जानकारी यदि सरकार प्राप्त करना चाहती है तो तत्कालीन जिलाधिकारियों से भी संज्ञान लेकर पुनः चिन्हित किया जा सकता है | जिससे राज्य आंदोलन में सक्रिय भागीदारी वाले औजियों को भी यह गौरव प्राप्त हो सके |
उत्तराखण्ड के गाँधी स्व.इन्द्रमणि बडोनी जी के साथ अखोडी ढुंग वासी शिवजनी, जो आज भी इतिहास के साथ जीवित है, उनकी पत्नी स्व.गजला देवी व स्वयं उन्होंने राजपथ पर केदारखण्ड़ भूमि के केदार नृत्य से पं.नेहरू जी को भी नचवाया | राज्य आंदोलन में उत्तराखण्ड के गाँधी जी की भूमिका से सारा पहाड़ विज्ञ है, किंतु शिवजनी जी को आज तक मौखिक रूप से भी किसी भी मंच ने उन्हें राज्य आंदोलनकारी होने की बात नहीं कही | इस ऐतिहासिक लोक कलाकार को किसी भी प्रकार का आश्रय पारितोषिक रूप में नहीं मिला | आखिर क्यों..?
सोहन लाल, पुजार गाँव टिहरी गढ़वाल को जिन्हें अमेरिका की सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के प्रो.स्टीफन फ्यूल (फ्योंली दास) अपना गुरूजी मानते है ने भी बताया कि मेरे पिताजी स्व. ग्रंथि दास ने राज्य आंदोलन में भूमिका निभाई लेकिन वे बिना राज्य सम्मान से अलविदा हो गए | जो चिंताजनक बात है, 106 साल के उत्तरकाशी जनपद के श्री शेर दास जी ग्राम मालना, ब्रहमखाल के जीवित ऐतिहासिकता के गौरव है, जो आज भी टिहरी रज्जा की मौखिक गौरव गाथा का गायन एवं बखान ढोल की थाप पर कर लेते हैं, ने बताया “हां बेटा हमून त बडू औखू वक्त देखि, अब त पुराणा औजि हरचिगि पर जाण से पैलि हम सब भि ये दर्जा पैं देंदा त यखीकि संस्कृति कू मान सम्मान होंदू” बेटा अंधिकांश औजी अब मर चुके है जिन्होंने राज्य आंदोलन में अपनी भूमिका दी, अलविदा होने से पहले उन्हें सम्मान मिल जाता तो यह उनका नहीं इस लोक संस्कृति का सम्मान होता |
थाती बूढ़ा केदार गाँव के वासी 83 वर्षीय श्री पूरण दास जी ने बताया मैं राज्य आंदोलन के प्रत्येक जुलूस में अपने ढोल के साथ रहा हूँ, उस समय के राज्य आंदोलनकारी और विधायक रहे माननीय बलवीर सिंह नेगी जी प्रत्यक्षदर्शी है | उन्होंने बताया मुझ तक राज्य आंदोलनकारी के चिन्हीकरण हेतु एक पत्र प्राप्त हुआ था किंतु स्थानीय प्रशासन की आख्या द्वारा मुझे सकारात्मक सहयोग नहीं मिला |फलतः मैं अपना पक्ष नहीं रख पाया, ऐसे अनेक उदाहरण है! पूरण दास जी ने कुछ अऱ्य साथियों के नामों का भी उल्लेख किया है | जिनमें जोग दास, शेर दास, कमल दास, पिंगल दास आदि |
मैंने औजियों (ध्यान रहे सभी औजी नहीं केवल जो राज्य आंदोलन में ढोल के साथ अग्रिम पंक्ति में थे) के सम्बध में महिला आंदोलनकारी श्रीमती प्रभा रतूड़ी से यह प्रश्न किया, क्या सांस्कृतिक विरासतीय पक्ष राज्य आंदोलनकारी होने की पात्रता रखते हैं ? उन्होंने कहा अवश्य इन्हें यह सम्मान मिलना ही चाहिए था, राज्य आंदोलनकारी श्री राजेश कुमार अग्रवाल ने बताया पुरोला में हमारे साथ जुलूस का नेतृत्व यही लोग कर रहे थे, रंवाई में कई टोलियां बनी हुई थी, प्रत्येक गांवों के लोग अपने यहां के ढोल वादकों के साथ नौगाँव में एकत्रित होते थे | यह अलग बात है की उनका सरकारी दस्तावेजों में पुलिस गिरफ्तारी के साक्ष्य न मिलना एवं स्वयं उनमें जागरूकता का अभाव होना | उनका राज्य आंदोलनकारी सम्मान न मिलने का कारण रहा है, किंतु यह स्पष्ट है कि उन्होंने राज्य आंदोलन में पूरा जोश उत्साह भरकर रखा था |
आइए अब कुछ तीखें प्रश्न! जब ढोल इतना ऐतिहासिक तो फिर ढोली का वर्तमान क्यों राज्य सम्मान हेतु आज भी जूझ रहा है? उत्तराखण्ड की राजनीति में ढोल खूब गूँजता फिर यह आज तक राज्य आंदोलनकारी तक क्यों नहीं पहुँचा ? ढोल सागर पर ब्रह्मनंद थपलियाल, मोहन बाबुलकर, केशव अनुरागी,अनूप चंदोला, शिव प्रसाद डबराल, प्रो.डी.आर.पुरोहित, एण्ड्रयू बी. आल्टर आदि ने पुस्तकें लिखी किंतु इनके सामाजिक उत्थान पर क्यों नहीं गहनता से बात एवं शोध किया गया? क्यों नहीं किसी विद्वान ने इनके राज्य आंदोलनकारी होने हेतु सरकार से सवाल उठाये, कानूनी प्रावधानों से भले साक्ष्य न भी जुड़ते लेकिन जो इस धरोहर की चिंता करते हैं, वे अपनी भावना तो रख सकते थे! आखिर क्यों नहीं? ढोल सागर में सतयुग, त्रेता, द्वापर, और कलियुग के ढोलियों का विवरण मिलता है लेकिन उत्तराखण्ड के राज्य आंदोलन के ढोलियों का राज्य आंदोलकारी में क्यों नहीं? जोशीमठ के पास सलूड डुग्रा गाँव की ‘रम्माण’ विश्व धरोहर हो सकती तो ढोल क्यों नहीं? लेकिन मुझे लगता है ढोल ‘ब्रह्माण्ड धरोहर’ घोषित हो भी जायेगा तो किंतु दूर गाँव के ढोली को क्या मिलेगा?
हमारी चिंतायें ढोल को विश्व तक पहुंचाने की नहीं बल्कि पहली प्राथमिकता उत्तराखण्ड की ढोलियों पर केन्द्रित हो, तब बात दूर की हो, वैसे भी दूर के ढोल सुहावने होते हैं | यहाँ के लोक संस्कृति के स्तम्भ झ्हें राज्य आंदोलनकारी ही नहीं मानते हैं भले वे झ्हें लोक विरासत का गौरव मानते हैं, लेकिन थोड़ी आगे और बढ़ जाते तो लोक विरासत भी खुश हो जाती, सच्चाई यह है कि यहाँ के बुद्धिजीवी ढ़ोल पर अपना भविष्य तलाशतें हैं न कि ढोली का, यह कटु सत्य है, लोक संस्कृति के नाम पर यह वर्ग निरंतर दबता रहा है, यदि ऐसा नहीं तो अभी जौनसार बावर की नौ खतों (पट्टियों) के बाजगियों ने कोटी कनासर में एक सम्मेलन रखा तथा सरकार से गुहार लगाई कि उनके पास मूलभूत सुविधायें नहीं हैं! उनका जीवन आर्थिकी में संकटमयी है, वे केवल ब्राह्मण, ठाकुरों की रोटी पर आश्रित है! आजादी के बाद भी दूसरों की रोटी पर जीवन निर्वाह यह अफसोस जनक बात है, ये लोग समाज का गुणगान ऐसे कर रहे थे जैसे ये कोई परिश्रम ही नहीं करते हैं, सामाजिक बंधुवा परम्परा में पर्याप्त आरक्षण के बाद जनजातीय क्षेत्र में बाजगियों की चिंता पर समाज कब चिंतन करेगा? सरकार किस आधार पर इन्हें नौकरी देगी, कहाँ से नौकरी लायेगी ? इन्हें कौन समझायेगा ऐसी बातों पर क्यों वक्त खराब करते हो |
निष्कर्षतः ढोल संस्कृति : उत्तराखण्ड की मौलिक संस्कृति का आधार है किंतु इसके वाहक ढोलियों को न समाज और न सरकार ने इन्हें सम्मान दिया |
राज्य आंदोलनकारी के रूप में कोई भी वादक न होना एक बड़ा प्रश्न है, देवताओं की भूमि उत्तराखण्ड में जिसका जवाब यहाँ का लोकमानस आत्मीयता में तो देता है किंतु ईमानदारी की तार्किकता से दूर ही दिखती है! मेरा मौलिक चिंतन यदि इस धरोहर के ढोली को राज्य पहचान का दर्जा नहीं तो फिर उसे भी ढाेल संस्कृति की चिंता नहीं करनी चाहिए! अब समय आ गया वह इस सामाजिक ताने बाने की लोक संस्कृति के पक्ष को दासता एवं भावनात्मकता में आंकलित न करें अपितु अपने सांस्कृतिक ऐतिहासिक पक्षों के लिए भी जागृत हो! भगवान से भी गुहार लगायें कहें ईश्वर आपकी पूजा करते – करते मैं आखिर ईश्वर सम्मान में तो हूँ किंतु मानवीय भावना अभी भी मुझसे दूर है ? यदि औजी समुदाय का कोई भी एक वादक राज्य आंदोलनकारी के सम्मान से सम्मानित नहीं हो पाया, तो यह यहाँ की लोक संस्कृति पर भी एक बड़ा प्रश्न सदैव बना रहेगा |
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