(देवेन्द्र चमोली)
विधानसभा चुनाव 2022 के नतीजे आये एक हफ्ता से अधिक वक्त बीत चुका है फिर प्रचंड बहुमत से भाजपा सत्ता मे काविज हो गई है, काग्रेस को प्रमुख विपक्षी दल व बसपा सहित दो निर्दलीय विधायकों को विपक्ष की भूमिका निभाने का जनादेश जनता जनार्दन ने दिया है। हार जीत की खुशी गम के बीच 22 साल के उत्तराखंड के 12वें मुख्यमंत्री की तलाश जारी है कभी किसी को दिल्ली दरवार से बुलावा चर्चा का विषय बन जाता है तो कभी केन्द्रीय नेतृत्व का कौन खासमखास की चर्चाओं में जनता जनार्दन मस्त है। कौन जीता कौन हारा कौन मंत्री कौन नहीं इन सब चर्चाओं के अलग असली प्रश्न फिर पृथक उत्तराखंड राज्य के पैरोकारी चिंतकों के सामने मुंह लटकाये खड़ा है कि जीता कोई भी हो अगर हार हुई तो एक बार फिर शहीदों के सपनों के उत्तराखंड की।
राज्य बनने के बाद हुये चुनाव पर नजर दौड़ाये तो विधानसभा हो या लोकसभा , पंचायत चुनाव हो या स्थानीय निकाय के जनादेश से साफ स्पष्ट है कि जनता ने पृथक राज्य आंदोलन की भावनाओं को दरकिनार किया है। अपनी स्पष्ट पहचान व पहाड़ के विकास के लिये सड़को पर उतरी उत्तराखंड की जनता इन 22 वर्षों मे अपने ही संघर्षों को नकारती दिखी है ऐसे में चुनाव दर चुनाव राज्य आंदोलन की भावनाओं के विपरीत मिल रहा जनादेश अब तक राजधानी विहीन पृथक राज्य उत्तराखंड निर्माण की प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़ा करने को काफी है।
पॉचवीं विधानसभा के नतीजों पर गौर करें तो एक बार फिर उत्तराखंड के जनमानस का जनादेश अपने ही संघर्षों के खिलाफ आया है। लम्बे जन संघर्षों व शहीदों की शहादतों पर बने राज्य की विधानसभा में इस बार भी राज्य निर्माण की परिकल्पना करने व पृथक राज्य निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली ताकतों का कोई प्रतिनिधि न होना शहीदों के सपने के उत्तराखंड की परिकल्पना के लिये चिन्ता का विषय तो है ही साथ ही पृथक राज्य उत्तराखंड निर्माण पर भी सवालिया निशान खडा कर रहा है।
लगातार उत्तराखंडी भावनाओं की जड़े खोखली ही नही बल्कि नष्ट होती जा रही है ये अलग विषय है कि इन जड़ो को नष्ट करने की कगार पर पहुंचाने वाले कारको की फेरहिस्त लम्बी हो सकती है अकेले जनमत को ही इसका दोशी मानना न्यायोचित नहीं होगा पर जन आंदोलनों के गर्भ से जन्मा राज्य उत्तराखंड जिसकी आज तक राजधानी तक जनभावनाओं के अनुरूप तय करने में सत्ताधारी कतराते रहे विना स्थाई राजधानी का देश मे एक मात्र राज्य की जनता का लगातार अपने ही संघर्षों को दरकिनार कर जनभावनाओं के उलट कार्य करने वाली ताकतों के पक्ष में जनमत से राज्य आंदोलन की प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़ा होना स्वाभाविक है।
ये प्रश्न बार बार संघर्ष शील ताकतों व राजनीतिक विचारकों को दिल में कौंध रहा है कि पृथक राज्य के आंदोलन में अपनी भागीदारी से इसे जनआदोंलन में परिवर्तित कर देश ही नहीं विश्व पटल पर अपनी अलग पहचान बनाने वाली उत्तराखंड की जनता क्या अपने मत व अपने आप के साथ न्याय कर रही है?
कभी पहाड़ के दुःख दर्द को समेटे अपने संघर्षों के दम पर उत्तराखंड के जनमानस के दिलों मे राज करने वाला उत्तराखंड क्रान्ति दल राज्य बनने के बाद मिले जनमत के चलते आज वंशनाश के कगार पर खड़ा हो गया । सदन में इस छैत्रीय दल की शून्यता उत्तराखंड के भविष्य की भी चिन्ता बड़ा गया।
बहरहाल आने वाले समय में दिल्ली दरबार से सूबे के नये नीजाम थोपे जाने की पंरम्परा का निर्वहन होगा ओर फिर से एक बार केन्द्र सरकार के दिशानिर्देशों की डोर से बंधी राज्य सरकार गैर धरातलीय जन कल्याणकारी उपलब्धियों की नई नई कथायें गढ़ेगी ओर इस चकाचौंध में फिर से गौण हो जायेगें उत्तरखंड वासियों व उत्तराखंड से जुड़े वो सारे अनसुलझे मुद्दे जिसके लिये उत्तराखंड का जनमानस कभी सड़को पर उतरा था। उत्तराखंड की मातृ शक्ति के साथ हुआ दुराचार 42 लोगों को शहादत, वेरोजगारी, पलायन, स्वास्थ्य, शिक्षा के मुद्दे फिर से दफन होते नजर जायेगे ।
भले ही एक बार फिर जनता के जनमत से जीत का जश्न सत्ता विपक्ष के लोग मना रहे हो लेकिन सदन में छैत्रीय हितों की पैरवी करने वाले दल की शून्यता के चलते असली मायनों में फिर हार हुई है तो शहीदों के सपनों के उत्तराखंड की । ओर इस हार के लिये संघर्ष शील ताकतों के झंडाबरदारों की महत्वाकांझा के साथ साथ राष्ट्रीय दलों के चुनावी चकाचौंध मे उत्तराखंड की जनता का भटकाव ही असली जिम्मेदार है।
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