Monday, November 25, 2024
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अंतराष्ट्रीय लोक भाषा दिवस : विशेष : बात ‘अपनी भाषा’ की…!

(रमाकान्त बेंजवाल)

वर्ष 1952 के बाद भाषा को आधार बनाकर राज्यों का निर्माण हुआ। 1971 की जनगणना में एक तरफ 8वीं अनुसूची में शामिल भाषाएँ रखी गईं और दूसरी तरफ ‘अन्य’ में बाकी सभी भाषाएँ रखी गईं। इससे हमारी लोकभाषाएँ हाशिए पर चली गईं। वर्ष 2001 की जनगणना में 122 भाषाएँ और 234 बोलियों की जानकारी मिलती है। सरकारी नीतियों के हिसाब से 10 हजार लोग अगर किसी भाषा को बोलते हैं तो वह भाषा है। जबकि वर्ष 2011 की जनगणना में हमारे गढ़वाली बोलने वालों की संख्या 23,22,406 और कुमाउनी बोलने वाले 20,11,286 लोग हैं। किसी भी भाषा का संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उस भाषा को कितने लोग बोलते हैं और कितना उस भाषा एवं साहित्य में सृजन किया गया है, ज्यादा महत्व रखता है।

लिपि मानव समाज का सबसे बड़ा आविष्कार है। लिपि से ही अपनी बात को दूसरों तक संप्रेषित करने के लिए मनुष्य चित्र संकेतों का सहारा लेता था, फिर भाव संकेत सामने आए और उसके बाद अस्तित्व में आए वर्ण या अक्षर, लिपि अपनी बात या हिसाब-किताब को लिखकर रखने एवं विचारों को सहेजने का माध्यम बनी। माना जाता है कि 70 हजार वर्ष पहले मानव जीवन में भाषा का आगमन हुआ और मौखिक स्वरूप को बदलते हुए 5-6 हजार साल पहले लिपि का आविष्कार हुआ।

बच्चे की प्रथम पाठशाला उसकी माँ होती है। जिस भाषा को वह माँ के मुँह से सुनता है उसी को सबसे पहले तुतलाते हुए बोलना शुरू करता है। इसीलिए माँ की भाषा को ‘दुदबोली’ कहा जाता है। कुटम्बीजन भी उसके इस भाषा ज्ञान को बढ़ाने में सहायक होते हैं। परिवार के इस दायरे से निकलकर बच्चा जब विद्यालय जाता है तो पढ़ाई का माध्यम हिंदी या अंग्रेजी होने पर भी उसकी अपनी ‘दुदबोली’ का असर उसके उच्चारण एवं लहजे पर जरूर पड़ता है। यदि किसी की पढ़ाई का माध्यम हिंदी और उसे गढ़वाली में लिखना है तो वह पहले हिंदी में चिंतन करेगा फिर मन ही मन उसका अनुवाद गढ़वाली में करेगा।अंतराष्ट्रीय लोक भाषा दिवस पर विशेष : आज बात अपनी भाषा की | Janmanch Aajkal

किसी भी क्षेत्र की संस्कृति परंपराओं की जानकारी में उस क्षेत्र की भाषा का ज्ञान महत्वपूर्ण होता है। अपनी लोकभाषा में भावों और विचारों की अभिव्यक्ति जितनी प्रभावपूर्ण एवं सशक्त ढंग से हो सकती है उतनी दूसरी भाषा में नहीं।

भारत का भाषा सर्वेक्षण जाॅर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (1894-1928) द्वारा ‘लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इण्डिया’ नाम से 21 खण्डों की प्रकाशित इस रिपोर्ट में 179 भाषाएँ और 544 बोलियों का सर्वेक्षण है। ग्रियर्सन अपनी रिपोर्ट के खण्ड-9 भाग-4 में पूर्वी पहाड़ी (नेपाली) , मध्य पहाड़ी (गढ़वाली-कुमाउनी) और पश्चिमी पहाड़ी (हिमाचल की भाषाएँ) नाम से लिखते हैं कि मध्य पहाड़ी का सम्बन्ध दरद-खस से है और जौनसारी को वे पश्चिमी पहाड़ी से जोड़ते हैं। गढ़वाली के 8 उपभेद- सिरनगर्या, नागपुर्या, दसोल्या, बधाणी, राठी, टिहर्याली, सलाणी, मांझ-कुम्मैया बताते हैं और उदाहरण सहित इनके अंतर को स्पष्ट करते हैं।

लगभग सौ वर्ष बाद भाषा के जानेमाने विद्वान प्रो० गणेश देवी जी ने वर्ष 2010 में भारत के 27 राज्यों के भाषा सर्वेक्षण पर काम शुरू किया। इस सर्वेक्षण में तीन हजार भाषा जानकारों तथा 500 भाषाविदों ने अपना योगदान दिया। प्रो० गणेश देवी के अनुसार विश्व में लगभग 6 हजार भाषाएँ बोली जाती हैं। 4 हजार भाषाएँ 30 वर्षों में समाप्त हो जाएंगी। पिछले 50 वर्षों में ही हमारी 250 भाषाएँ खत्म हो गई हैं। जिस भाषा में लिखा नहीं जा रहा है वह भाषा जल्दी लुप्त हो रही है। मौखिक परंपरा का युग अब समाप्ति पर है।

प्रो० गणेश देवी के निर्देशन में ‘पिपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया’ अपने-अपने क्षेत्र के लोगों द्वारा अपनी भाषा पर किया गया सर्वेक्षण है। 35 हजार पृष्ठों वाले इस सर्वेक्षण में 27 राज्यों 780 भाषाओं के 50 खण्ड हैं और प्रत्येक राज्य का अलग भाग है। भारतीय लोकभाषा सर्वेक्षण का 30वां खण्ड ‘उत्तराखंड की भाषाएँ’ 2014 में प्रकाशित हुआ। इस 30वें खण्ड में गढ़वाल की- गढ़वाली, जौनसारी, जौनपुरी, जाड, बंगाणी, रवांल्टी, मार्च्छा तथा कुमाऊँ की- कुमाउनी, जोहारी, थारू, बोक्साड़ी, रं-ल्वू और राजी कुल 13 भाषाओं का सर्वेक्षण हुआ है।

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