हरिद्वार, 22 दिसम्बर (कुल भूषण) 23, दिसम्बर, 2020 को देश महान् अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द महाराज का 94 वां बलिदान दिवस मना रहा है। भारतीय संस्कृति व शिक्षा की पताका को विश्व पटल पर प्रतिश्ठापित करने सम्बन्धित महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में स्वामी श्रद्धानन्द महाराज के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। लार्ड मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा के समानान्तर प्राचीन वैदिक भारतीय शिक्षा प्रणाली को देश में पुनःस्थापित करने के लिए स्वामी श्रद्धानन्द महाराज ने 1900 में गुजरांवाला में गुरुकुल की स्थापना की।
जिसका उद्देश्य देश की युवा पीढी को भारतीय संस्कारों व शिक्षा से संस्कारित कर अपनी संस्कृति व गौरवशाली प्राचीन संस्कृति से संस्कारित करना था।
संन्यास पूर्व स्वामी श्रद्धानन्द महाराज का जन्म का नाम बृहस्पति था जिसे बाद में बदलकर इनके परिजनों ने मुंशीराम रख दिया था इनके पिता तत्कालीन अंगे्रजी हुकुमत में पुलिस विभाग के बडे अधिकारी थे। मुंशीराम ने उच्च शिक्षा प्राप्त कर लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) में वकालत करना शुरू कर अपने को एक प्रतिष्ठित वकील के रूप में स्थापित किया। एक बार इन्हंे अपने पिता के साथ स्वामी दयानन्द की सभा में जाकर उनके विचारांे को सुनने का अवसर मिला, जिसका इनके जीवन पर गहरा प्रभाव पडा जिसके चलते इनका झुकाव आर्य समाज के प्रति हो गया तथा इन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र में आर्य समाज को अंगीकृत कर लोगों की सेवा में अपने जीवन को समर्पित कर दिया।
उस समय में गुरुकुल की स्थापना करने की कल्पना करना एक बडी चुनौती था, जिसे पूरा करने का संकल्प स्वामी जी ने लिया। इस स्वप्न को साकार करने तथा इसके निर्माण के लिए धन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए उस समय उन्होंने तीस हजार रूपये जमा करने का संकल्प लेकर भ्रमणकर जनमानस से दान लेकर घोषणा की कि जब तक वह यह धनराशि जमा नहीं कर लेगें तब तक अपने घर वापिस नही जायेंगे। स्वामी जी ने देश भर मंे उस समय की यह बहुत बडी धन राशि जमा कर आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के निर्देशन में गुजरांवाला में गुरुकुल की स्थापना की, परन्तु वह गुरुकुल के लिए उचित स्थान की तलाश में थे, जिसे पूरा करने में उस समय उ0प्र0 के जनपद बिजनौर के निवासी जमींदार अमन सिंह ने एक गांव व गंगा से लगी भूमि का एक बडा हिस्सा दान देकर पूरा किया जिसका गंगा के पार का हिस्सा हरिद्वार से लगता था।
जिसके चलते 1902 में स्वामी जी गुजरांवाला से अपने गुरुकुल के विद्यार्थियांे को यहां पर ले आये 1902 से 1924 तक गुरुकुल कंागडी गांव स्थित गंगा पार पुण्य भूमि में रहा। 1924 में गंगा में आयी बाढ के चलते गुरुकुल को वर्तमान में जहां पर गुरुकुल कंागडी विश्वविद्यालय स्थित है उस स्थान पर लाया गया। आज भी पुण्य भूमि में स्वामी जी महाराज द्वारा बनाये गये भवन स्थित है जो गुरुकुल के विद्यार्थियों व अधिकारियों, कर्मचारियों एवं देशभक्तों के लिए पावन तीर्थ है। 1900 में स्वामी श्रद्धानन्द महाराज द्वारा स्थापित शिक्षा का यह वृक्ष आज वट वृक्ष के रूप में उनके बताये मार्ग पर चलकर देश के युवाओं को शिक्षित करने के साथ साथ प्राचीन भारतीय संस्कृति व संस्कारों से संस्कारित करने का काम कर रहा है।
शिक्षा व राष्ट्र निर्माण के क्षेत्र में स्वामी श्रद्धानन्द महाराज द्वारा किये जा रहे कार्यों से प्रभावित होकर कई बार महात्मा गांधी गंगा पार घने जंगल के बीच स्थित गुरुकुल में आये जहां पर मोहनदास कर्मचन्द गांधी को पहली बार स्वामी श्रद्धानन्द महाराज ने महात्मा के नाम से सम्बोधित किया जो बाद में उनकी समूचे विश्व में पहचान बना। देश की आजादी के आन्दोलन के समय में गुरुकुल आजादी के आन्दोलन में भाग लेने वाले क्रान्तिकारियांे का केन्द्र रहा। यहां पर कई क्रान्तिकारियांे ने आकर अपनी रणनीतियां बनाने का काम किया। कई बार अंग्रेज अफसरों ने गुरुकुल का निरीक्षण किया। वह इसे क्रान्तिकारियों का केन्द्र मानते थे।
परन्तु उन्हें यहां के दौरे के दौरान कुछ भी संदिग्ध नही मिला । अंग्रेजी शासन के विरोध में अमृतसर में होने वाले कांग्रेस के महा अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए कांग्रेस के नेताओं द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द महाराज से विशेष अनुरोध करना तथा उसे स्वामी जी द्वारा स्वीकार किया जाना व दिल्ली की जामा मस्जिद से पहली बार किसी गैर मुस्लिम द्वारा सम्बोधित किया जाना स्वामी जी के व्यक्तित्व व देश में उनके प्रभाव को सिद्ध करता है। वर्तमान समय में भी उनके सिद्धांतों व विचारांे की सार्थकता कम नही हुई है। उनके बताये मार्ग पर चलकर गुरुकुल कांगडी शिक्षा के क्षेत्र में निरन्तर अग्रसर है।
Recent Comments