नई दिल्ली, देश की राष्ट्रीय राजधानी में एक बार फिर उत्तराखण्ड़ियों गर्जना सुनाई दी गयी, इस बार इकट्ठा हुये पर्वतीय लोगों का मकसद था उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को पहले की भांति जनजातीय क्षेत्र घोषित कर संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल करना। उत्तराखंड एकता मंच के बैनर तले रविवार 22 दिसंबर को जंतर-मंतर दिल्ली के जंतर मंतर पर देश भर से आए पर्वतीय मूल के लोगों का कहना था कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की , विषम भौगोलिक स्थिति में रोजगार के अभाव, वर्षा पर आधारित अलाभकारी खेती जैसे विभिन्न कारणों से व्यापक स्तर पर पलायन हो रहा है l हजारों गांव जनशून्य हो गए हैं।
उत्तराखंड एकता मंच के निशांत रौथाण ने कहा कि सन् 1972 से पहले पहाड़ में लागू थी 5वीं अनुसूची – पहाड़ में शेड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 लागू था, नॉन-रेगुलेशन सिस्टम लागू था, पहाड़ को 1935 में बहिष्कृत क्षेत्र घोषित किया गया था l यह तीनों जनजातीय कानून पहाड़ में भी लागू थे l आजादी के बाद देश में जिन भी इलाकों में यह कानून लागू थे उन इलाकों के मूलनिवासियों को भारत सरकार ने जनजातीय दर्जा देकर वहां 5वीं या 6वीं अनुसूची लागू की l लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को 5वीं अनुसूची का दर्जा देने की बजाए ये अधिकार 1972 में छीन लिए गए l
उन्होंने कहा भारत सरकार द्वारा किसी भी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने के जो मानक निर्धारित किए गए हैं उन पर उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के मूलनिवासी खरे उतरते हैं, उत्तराखंड एकता मंच के देहरादून कॉर्डिनेटर अश्वनी मैंदोला ने बताया की उत्तराखंड को छोड़ कर सम्पूर्ण हिमालय के मूलनिवासियों को जनजाति का दर्जा मिला हुआ है। यहां तक कि हिमाचल प्रदेश का 43% क्षेत्रफल भी 5वीं अनुसूची के अंतर्गत आता है। इतिहासकार प्रोफेसर अजय रावत ने कहा कि शताब्दियों तक यहां खसों का निवास था जिसकी पुष्टि ऐतिहासिक तथ्यों, सरकारी दस्तावेजों तथा यहां के सांस्कृतिक परिवेश से होती है। संपूर्ण हिमालय के जनजातीय समुदायों की तरह उत्तराखंड का आम जनमानस भी प्रकृति का उपासक है। इसीलिए आज भी पर्वतीय क्षेत्र के 90% लोग खस जनजाति की परपराओं का पालन करते हैं, वहीं महावीर राणा ने कहा कि दुनिया के अन्य जनजातीय क्षेत्रों की तरह उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र की संस्कृति प्रकृति पूजक आदिवासियों वाली है। यहां के फूलदेई, हरेला, खतड़ुआ, इगास बग्वाल, हलिया दसहरा, रम्माण, हिलजात्रा जैसे त्यौहार व उत्सव हों या कठपतिया, ऐपण कला, जादू-टोने पर विश्वास, लोक देवताओं का आह्वान, ऐतिहासिक व पौराणिक पात्रों के नाम पर ‘जागर’ या फिर वनों पर आधारित खेती व पशुपालन आदि का सामान्य जनजीवन में आज भी प्रचलन है। जो पहाड़ की जनजातीय परंपरा को दर्शाते हैं। लोक-व्यवहार में रचे-बसे ऐसे अनेक तत्व हम पहाड़ियों को जनजातीय श्रेणी का स्वाभाविक हकदार बनाते हैं।
अपने उद्बोधन में उत्तराखंड एकता मंच के संयोजक अनूप बिष्ट ने कहा कि रोजगार की तलाश में अपना पैतृक घर, गांव व अन्य सबकुछ छोड़कर शहरों की ओर जाने वाले अधिकांश पहाड़ी लोगों की शुरुआती अवधारणा थी कि वे एक दिन पहाड़ जरूर लौटेंगे लेकिन ऐसा बहुत कम हो पाया। ऐसे प्रवासियों में से ज्यादातर लोग वर्षों तक अपने गांव वापस नहीं जा पाते हैं। जिससे पहाड़ के हजारों गांव निर्जन हो गए हैं। यदि पहाड़ में 5 वीं अनुसूची लागू होती है तो देश भर 5के शहरों में रह रहे पहाड़ी रोजगार के साथ घर वापिसी करेंगे l लेफ्टिनेंट जनरल(सेनि.) गंभीर सिंह नेगी ने कहा कि उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र दो-दो अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से घिरा हुआ है। इस दुर्गम क्षेत्र का जनविहीन होते जाना राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से बहुत खतरनाक हो सकता है, यह एक महत्वपूर्ण विषय है, जिस पर राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से ध्यान दिया जाना जरूरी है। कार्यक्रम में उपस्थित प्रताप नगर के विधायक विक्रम नेगी ने कहा की वो इस मुद्दे को प्राइवेट मेम्बर बिल के माध्यम से उत्तराखंड विधान सभा के अगले सत्र में रखेंगे ।
दिल्ली के जंतर मंतर पर हजारों उत्तराखंडी मूलनिवासियों ने उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को जनजातीय क्षेत्र घोषित कर इसे संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव पारित किया गया ताकि उत्तराखंड के जनप्रतिनिधि जल्द ही इस प्रस्ताव को उत्तराखंड विधानसभा में पास करवाएंगे।
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