Friday, March 29, 2024
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केंद्रीय मंत्री पासवान का निधन, दिल्‍ली के अस्‍पताल में ली अंतिम सांस

पटना, बिहार के लोकप्रिय नेता और लोक जनशक्ति पार्टी के संस्‍थापक व केंद्र सरकार में मंत्री रामविलास पासवान का आज निधन हो गया, गुरुवार कर शाम उन्‍होंने दिल्ली के अस्‍पताल में अंतिम सांस ली। उनके निधन की पुष्टि एलजेपी के अध्‍यक्ष व उनके बेटे चिराग पासवान ने कर दी है।

 

रामविलास पासवान ने ही सन् 2000 में लोक जनशक्ति पार्टी की स्थापना की थी। उन्हें राजनीतिक मौसम का सबसे बड़ा वैज्ञानिक माना जाता था। बिहार की छोटी पार्टियों की लिस्ट में होने के बावजूद उनकी हमेशा केंद्र की सत्ता में भागेदारी रहती है। लेकिन ये हिस्सेदारी उसे बिहार नहीं, बल्कि केंद्र की सत्ता में मिलती रही है। उनके निधन पर राजनैतिक जगत स्तब्ध है |

चुने गए डीएसपी, बन गए राजनेता

बिहार के खगड़िया ज़िले में एक दलित परिवार में जन्मे राम विलास पासवान पढ़ाई में अच्छे थे. उन्होंने बिहार की प्रशासनिक सेवा परीक्षा पास की और वे पुलिस उपाधीक्षक यानी डीएसपी के पद के लिए चुने गए.

लेकिन उस दौर में बिहार में काफ़ी राजनीतिक हलचल थी. और इसी दौरान राम विलास पासवान की मुलाक़ात बेगूसराय ज़िले के एक समाजवादी नेता से हुई जिन्होंने पासवान की प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया.

1969 में पासवान ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर अलौली सुरक्षित विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और यहाँ से उनके राजनीतिक जीवन की दिशा निर्धारित हो गई.

पासवान बाद में जेपी आंदोलन में भी शामिल हुए और 1975 में लगी इमरजेंसी के बाद लगभग दो साल जेल में भी रहे.

लेकिन शुरुआत में उनकी गिनती बिहार के बड़े युवा नेताओं में नहीं होती थी.

वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन बताते हैं कि छात्र आंदोलन और जेपी आंदोलन के समय लालू यादव, नीतीश कुमार, सुशील मोदी, शिवानंद तिवारी, वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे नेताओं का नाम ज़रूर सुना जाता था, लेकिन पासवान का नाम लोगों ने पहली बार 1977 में सुना.

अरविंद मोहन याद करते हैं, “पासवान जी का नाम तब वैसा नहीं सुना जाता था, क्योंकि उनका नाम 74 की जो लीडरशिप थी उसमें नहीं था, फ़ैसला लेने वालों में वो शामिल नहीं थे. टिकट मिलने में उनको सुविधा इसलिए हो गई होगी क्योंकि वे दलित थे और एक बार विधायक भी रह चुके थे. रामविलास जी के बारे में ध्यान गया 77 के चुनाव में, जब लोगों में ये जानने की दिलचस्पी हुई कि ये रिकॉर्ड किसने बनाया.”

अरविंद मोहन बताते हैं कि इसके बाद रामविलास पासवान ने संसद के मंच का अच्छा इस्तेमाल किया.

वो बताते हैं, “सबसे ज़्यादा सवाल पूछने वाले नेताओं में उनकी गिनती होती थी, वो ख़ूब पढ़ते-लिखते थे, हर मुद्दे पर सवाल पूछते थे जिससे उनकी छवि तेज़ी से बदली और फिर जो नए नौजवानों की लीडरशिप उभरी, उसमें वो शामिल रहे.”

बिहार से निकला बड़ा दलित नेता

1977 के बाद 1980 के चुनाव में भी आराम से जीतकर पासवान ने संसद और केंद्रीय राजनीति में अपनी उपस्थिति बनाए रखी, लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में वो चुनाव हार गए.

अरविंद मोहन बताते हैं कि उसी समय देश में दलित उत्थान की राजनीति ने ज़ोर पकड़ा और पासवान ने हरिद्वार, मुरादाबाद जैसी सीटों पर हुए उपचुनाव में जाकर अपनी दलित नेता की छवि मज़बूत करने की कोशिश की और बिहार के बाहर भी राजनीति की राह बनाई और दिल्ली से जुड़े रहे.

वो कहते हैं, “हालाँकि वो कांशीराम और मायावती के स्तर के नेता नहीं बन पाए, लेकिन देश में दलित नेताओं की जब भी गिनती होगी तो उनका भी नाम उसमें आएगा. और इसका आगे उन्हें लाभ हुआ और वो अपनी बिरादरी के नेता बन गए.”

अरविंद मोहन बताते हैं कि पासवान वोट का ध्रुवीकरण उनकी बहुत बड़ी ताक़त बन गई, जो अभी तक बनी हुई है क्योंकि अगर किसी भी नेता के पास 10 फ़ीसदी वोट हैं तो राजनीति में उनकी उपेक्षा नहीं हो सकती.

रामविलास पासवान ने इसी ताक़त के दम पर वर्ष 2000 में आकर अपनी अलग राह पकड़ी और जनता दल (यूनाइटेड) से टूटकर अपनी अलग पार्टी बनाई, जिसका नाम रखा लोक जनशक्ति पार्टी.

पटना स्थित वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर भी बताते हैं कि रामविलास पासवान अपनी जाति के बड़े नेता बनकर उभरे और उन्हें इसका लाभ हुआ.

मणिकांत ठाकुर कहते हैं, “बिहार में जितनी भी दलित जातियाँ हैं, उनमें पासवान जाति में आक्रामकता का गुण रहा है, अगर किसी एक क्षेत्र में कई दलित जातियाँ हैं और उनमें पासवान भी हैं तो वहाँ वर्चस्व उनका रहता है, वो काफ़ी मुखर रहते हैं. इसका फ़ायदा उनको मिला और उनकी पार्टी का फैलाव हुआ.”

लेकिन रामविलास पासवान ने दलितों के लिए काम क्या किया?

अरविंद मोहन कहते हैं कि रामविलास पासवान ने बीएसपी या आंबेडकर की तरह से दलितों को लेकर कोई आंदोलन नहीं किया, लेकिन इस मायने में उनकी उपयोगिता बहुत अहम रही और वो दलितों को संविधान और क़ानून में दिए गए अधिकारों पर किसी भी तरह की आँच आने के मौक़ों पर खुलकर बोला करते थे.

अरविंद मोहन कहते हैं, “जो बने बनाए क़ानून हैं, उनको बचाए रखना भी दलित राजनीति का एक बड़ा हिस्सा है. रामविलास जी जैसे लोगों की मौजूदगी इसे सुनिश्चित करती रही. ऐसा नहीं हुआ कि वो इसे लेकर लड़ गए, या सरकार छोड़ दिया, लेकिन जब भी मौक़ा आया, वो बोला करते थे.”

वो साथ ही पासवान को दलितों में सबसे कामयाब नेता भी मानते हुए कहते हैं, “बीएसपी काफ़ी तेज़ी से उभरी, उससे दलितों की ज़िंदगी पर भी फ़र्क़ पड़ा लेकिन फिर वो भ्रष्टाचार के चंगुल में फँस गई और उसने जातीय वैमनस्यता को बढ़ाया, जो पासवान की राजनीति में कभी नहीं रही.”

काम करवाने वाले मंत्री

रामविलास पासवान सबसे पहले वीपी सिंह सरकार में श्रम मंत्री बने. उसके बाद से उन्होंने अलग-अलग सरकारों में रेल, संचार, खदान, रसायन और उर्वरक, उपभोक्ता व खाद्य जैसे मंत्रालयों की ज़िम्मेदारी संभाली.

बिहार में रेल मंत्री रहते हुए उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र हाजीपुर में रेलवे का क्षेत्रीय कार्यालय खुलवाया.

पटना स्थित वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर बताते हैं कि इसमें उनका बड़ा योगदान था और अधिकारियों से किस तरह से दबाव डालकर काम करवाया जा सकता है, वो उनको बखूबी आता था.

वो कहते हैं, “रामविलास पासवान कहते थे कि विकास से संबंधित कोई भी बात कहने पर नौकरशाह कोई ना कोई अड़ंगा डाल देते थे, तो हमने ये रास्ता निकाला कि हम उनसे ये कहते ही नहीं थे कि ये काम होगा कि नहीं होगा, बल्कि हम उनसे कहते थे कि ये काम होगा और आपको रास्ता निकालना ही है, हमको तर्क नहीं चाहिए, तो जब हमने ये रवैया लिया तो हम काम करवा सके.”

अरविंद मोहन भी पासवान के काम करवाने की बात से इत्तेफ़ाक़ रखते हुए कहते हैं कि बिहार में जेपी आंदोलन के बाद निकले तीन युवा राजनेताओं में से लालू यादव और नीतीश कुमार की ही तरह रामविलास पासवान को भी प्रदेश संभालने का मौक़ा मिलता, तो शायद तस्वीर अलग होती.

वो कहते हैं, “अगर किसी समय उनको भी मौक़ा मिलता, तो शायद बिहार का रंगरूप अलग होता, क्योंकि रेल मंत्री रहते हुए उन्होंने बिहार के लिए जो काम किया, वो भले ही आदर्श ना हों, लेकिन वो बताता है कि कितनी तत्परता से उन्होंने वो काम किया.”

हालाँकि, मणिकांत ठाकुर ये भी ध्यान दिलाते हैं कि रेलमंत्री रहने के दौरान उन पर भी आरोप लगे.

वो कहते हैं, “ऐसा नहीं हुआ कि किसी घोटाले की बात सामने आई, लेकिन जनसामान्य के बीच ये बातें उठीं कि वो जहाँ-जहाँ मंत्री रहे, वहाँ भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने को लेकर तत्पर नहीं दिखे.”

परिवार और परिवारवाद

रामविलास पासवान की राजनीति के साथ-साथ उनके परिवार की भी ख़ूब चर्चा होती रही है.

उन्होंने दो शादियाँ कीं. उनकी पहली पत्नी ग्रामीण पृष्ठभूमि की थीं और उनपर तोहमत लगता रहा कि उन्होंने अपनी पत्नी को गाँव में छोड़ दिया. उनसे उन्हें दो बेटियाँ हैं. रामविलास पासवान ने नामांकन पत्र भरते समय जो जानकारी दी उसके अनुसार उन्होंने पहली पत्नी राजकुमारी देवी को 1981 में तलाक़ दे दिया.

पत्नी रीना शर्मा के साथ रामविलास पासवान

कुछ साल बाद उन्होंने दूसरा विवाह किया. उनकी दूसरी पत्नी रीना शर्मा एयरहोस्टेस थीं. चिराग पासवान के अलावा दूसरी पत्नी से उन्हें एक और बेटी हुई.

मणिकांत ठाकुर बताते हैं कि रामविलास पासवान की पत्नियों की चर्चा ज़रूर होती रही थी और ये भी कहा गया कि इसे लेकर विवाद भी हुआ.

वो बताते हैं, “कई बार ये विवाद हुआ कि कैसे उन्होंने अपनी पत्नी को बेसहारा छोड़ा, लेकिन हमने देखा कि इनके भाइयों और सगे संबंधियों में इतना मेल था, भाइयों में तो इतना प्रेम था कि लगता था कि सब एक-दूसरे पर जान छिड़कते थे. लगता ही नहीं था कि घर में इसे लेकर कोई विवाद हुआ हो.”

परिवार के प्रति पासवान का प्रेम उनकी राजनीति पर भी हावी रहा. इसकी बानग़ी मिलती है 2019 के लोकसभा चुनाव से, जब पार्टी ने जिन छह सीटों से चुनाव लड़ा उनमें तीन पासवान के रिश्तेदार थे. बेटा चिराग पासवान और दो भाई पशुपति पारस और रामचंद्र पासवान. तीनों ही जीते. फिर रामविलास पासवान भी राज्यसभा पहुँच गए और इस तरह संसद में सबसे बड़ा कोई परिवार था तो रामविलास पासवान का परिवार था.

हालाँकि रामचंद्र पासवान का चुनाव परिणाम आने के दो महीने बाद ही बीमारी से निधन हो गया. बताया जाता है रामविलास पासवान छोटे भाई की मृत्यु से बहुत आहत हुए थे.

मणिकांत ठाकुर बताते हैं कि रामविलास पासवान के राजनीतिक जीवन के शुरुआत से लेकर अंत तक परिवारवाद का सवाल इनका पीछा करता रहा और उन्होंने कभी भी इस आलोचना से मुक्त होने की कोशिश भी नहीं की.

वो बताते हैं कि ये सवाल पूछे जाने पर रामविलास कहते थे, “हम जिसपर भरोसा करते हैं, उनको हम आगे लाते हैं. और क्या इसपर कोई प्रतिबंध है? हमारा समाज पिछड़ा है और उसमें अगर कोई काम कर सकता है तो हम उसका उपयोग करते हैं.”

मणिकांत ठाकुर रामविलास पासवान के परिवार प्रेम का एक उदाहरण गिनाते हुए ध्यान दिलाते हैं कि उन्होंने अपने बेटे चिराग को पार्टी का अध्यक्ष बना रखा है तो भाई के बेटे प्रिंस राज को बिहार में पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष.

अरविंद मोहन पासवान पर लगे परिवारवाद के आरोप का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि ये समस्या उन सभी पार्टियों में है, जहाँ ना विचारधारा है ना संगठन, और पासवान जिन भी पार्टियों में रहे उन सभी में ना संगठन बनाने पर ध्यान दिया गया और ना विचारधारा को बढ़ाने पर.

वो साथ ही कहते हैं, “इसके लिए उनको दोष देना ठीक नहीं. दरअसल परिवार के अलावा दूसरे पर भरोसा करना आज की तारीख़ में संभव नहीं है. संगठन से ज़्यादा ये परिवार का भेद खुलने वाला मसला भी रहता है, जिससे लोग चाहते हैं कि बात घर में ही रहे.”

सूट-बूट वाले दलित नेता

रामविलास पासवान के परिवार के साथ-साथ एक चर्चा उनके स्टाइल की भी होती है.

पासवान जिस पीढ़ी और जिस समूह के नेता रहे, उनमें से उन्होंने अपनी एक अलग राह अपनी जीवन शैली से भी बनाई, ख़ासकर पहनावे से.

तब उस पर उनके पुराने साथी और अब राजनीतिक विरोधी शिवानंद तिवारी ने पूछा था – “रामविलास भाई, आप क्या खाकर उमर रोके हुए हैं. जब हम लोग 75 पर पहुँच गए तो आप किस तरह 72 पर ही रुके हुए हैं.”

शिवानंद तिवारी ने याद दिलाया कि आप तो 1969 में ही विधायक बन गए थे. तब विधायक होने की न्यूनतम उम्र भी आपकी होगी तो उस हिसाब से आप 75 पार कर गए हैं.

मणिकांत ठाकुर बताते हैं कि रामविलास पासवान से जब कोई उनके ‘फ़ाइव स्टार दलित नेता’ की छवि के बारे में पूछता, तो वो खीझ जाते थे.

उनका जवाब होता था – “ये आपलोगों की वो मानसिकता है कि दलित मतलब ये कि वो ज़िंदगी भर भीख माँगे, ग़रीबी में रहे, और हम उसको तोड़ रहे हैं तो क्यों तकलीफ़ हो रही है.”

रामविलास पासवान क्या थे और उन्होंने कैसे याद रखना चाहिए इसे अरविंद मोहन इस एक पंक्ति में समेटते हैं – रामविलास पासवान ने बहुत आदर्शवादी राजनीति नहीं की, लेकिन एक दलित परिवार में जन्म लेकर बिना किसी मदद या पारिवारिक पृष्ठभूमि के इतने ऊपर तक जाना, ये उनके जज़्बे को बताता है कि वो क्या कर सकते थे.”source: bbc.com/hindi

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